Saturday, June 26, 2010

वृन्दावन में मौजूद है एक ग्रन्थ समाधि


अशोक बंसल



कृष्ण की क्रीड़ा स्थली वृन्दावन में साधु-सन्तों की समाधियों के मध्य एक ऐसी अनूठी समाधि भी हैं जिसमें किसी इंसानी काया के अवशेष न होकर सैंकड़ों वर्ष पुराने हस्तलिखित ग्रन्थों का भंडार हैं ! यह समाधि विश्व में अपने तरीके की अकेली समािध है और वृन्दावन के विद्वान समय समय पर इस ग्रन्थ समाधि के उत्खनन की माँग करते रहे हैं ताकि समाधि में दफन दुर्लभ ग्रन्थों को जाना जा सके।

वृन्दावन मे कालीदह घाट पर स्थित विशाल टीले पर 511 फीट ऊँचे लाल पत्थर के आकर्षक मदन मोहन मन्दिर, जिसके आँगन में दुर्लभ ग्रन्थ समाधि है, के निर्माण की कथा बहुत रोचक है। मथुरा गजेटियर के मुताबिक कालीदह घाट के पास स्थित टीले पर वैष्णव सम्प्रदाय के प्रबल उपासक सनातन गोस्वामी का डेरा था। बात साढे़ चार सोै वर्ष पुरानी है । एक दिन यमुना नदी में काली मर्दन घाट पर सामान से भरी नाव फंस गई। सामान मुल्तान के खत्री व्यापारी रामदास का था और वह आगरा की ओर कूच कर रहा था। परेशान रामदास टीले पर बैठे सन्त सनातन के पास गया और नाव फंसने की बात कही। सनातन ने अपने मदनमोहन मन्दिर में शीष नवाने का सुझाव दिया। व्यापारी रामदास ने ऐसा ही किया और उसकी पानी में फंसी नाव चल पड़ी । आगरा से लौटकर रामदास ने सनातन गोस्वामी के मदन मोहन मन्दिर केा लाखों रूपया खर्चकर विशाल और आकर्षक बना दिया। विक्रम सं0 1726 में औरगजेब की फौजों ने वृन्दावन में धाबा बोला और अनेक मन्दिरों का जमकर घंस किया। मदन मोहन मन्दिर पर भी आक्रमण हुआ । मन्दिर के पार्श्व में समाधि बाड़ी है। इस मन्दिर में सेवायत गोस्वामियों की अनेक समाधियाँ है। सनातन गोस्वामी और उनके भाई रूप गोस्वामी संस्कृत भाषा के प्रकांड पडित थे और उन्होनें अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। विद्वानों का मत है कि औरंगजेव के आक्रमण की खबर सुन सनातन और रूप गोस्वामी के भक्तों ने अनेक ग्रन्थों को बक्सो में बन्द कर गोस्वामियों की समाधियों के मध्य एक खाली जमीन में दफना दिया । बाद में इस स्थान पर संगमरमर की समाधि का रूप दे दिया गया जो आज भी सुरक्षित हैं। इस समाधि पर ‘गन्थ-समाधि’ लिखा है।

ब्रज संस्कृति के प्रसिद्व विद्वान एवं ‘वृन्दावन शोध संस्थान’ के पूर्व निदेशक डा0 नरेश चन्द्र बंसल ने बताया कि गन्थ समाधि में सनातन, रूप और जीव गोस्वामी जैसे ग्रन्थकारों के हस्तलिखित गन्थ होने की पूरी सम्भावनाऐं है। मन्दिर के सेवायत अपने पूर्वजों की इस निधि को जस का तस जमीन में दफन रखना चाहते हैं। लेकिन इस राष्ट्रीय घरोहर को बाहर निकाला जाना बेहद आवश्यक है। इससे वृन्दावन का गौरव बढे़गा और सनातन धर्म के इतिहास पर नई रोशनी पड़ेगी । नरेश बंसल का कहना है कि पुराने जमाने में ग्रन्थों को सुरक्षित रखने की तकनीक बेहद कारगार थी। गन्थ समाधि के उत्खनन से इस तकनीक का भी पता चलेगा।





कलम के नीचे अण्डा


अशोक बंसल

प्रो0 सुखराम विष्वविद्यालय द्वारा कराए जा रहे उत्तर पुस्तिाकाओं के मूल्यांकन में जुटे है। कापियाँ जाँचने में शरीर पसीना छोड़ रहा है। पर प्रोफेसर साहब कापियों के पन्नें धकापेल पलट रहे हैं। कापी के पन्ने चिपके पड़े हैं सो सुखराम अंगुलियों को कभी पसीने से सने माथे पर लगा चिकनाई देते हैं तो कभी जीभ के अग्रभाग पर मौजूद लार में भिगोकर । ऐसा करने से पन्ने पलटने में सुविधा रहती है। 5 घन्टों में 300 कापियाँ जाँचनी है। एक दिन में 3 हजार रू0 की दिहाड़ी बैठ रही है।

प्रो0 सुखराम मेराथन गति से कापियोँ का मूल्यांकन कर रहे हैं। इतिहास के प्रोफेसर हैं पर उनकी करामती कलम किसी भी विषय की कापी पर नम्बर टपकाने में सक्षम है ! उनके इतिहास के बंडल में भूलवष कुछ हिन्दी की कापियाँ निकलने लगी। प्रो0 सुखराम को सुध ही न रही । इतिहास के साथ हिन्दी भी जाँच दी। काफी देरी बाद भूल सुधार किया। आसपास की कुर्सियों पर बैठे अन्य प्रोफेसरों को पास वाले की गलतियों पर हँसने -रोने की फुरसत नहीं सो सुखराम अपनी करामात पर खुद ही हँसे । थोड़ी देर तक पन्नों पर नम्बर टपकाने की गति धीमी पड़ी लेकिन क्षणभर बाद कलम ने गति फिर पकड़ ली।

प्रो0 सुखराम के काम करने की गति कुलपति को भा रही है। एक जमाना था जब विष्वविद्यालय षिक्षा के स्तर को सुधारने के लफड़े में माथापच्ची करते थे। स्तर तो गया भाड़ में, विष्वविद्यालय के आर्थिक संसाधन गड़बड़ा गए। स्ववित्त पोषित योजना आई। विष्वविद्यालय मालमाल हो गए। उच्च षिक्षा की दुकानें गाँव-गाँव खुल गई। परीक्षा तो हो गई पर कापियाँ कैसे जँचे। लाखों कापी और षिक्षक गिनती के । ऐसे में सुखराम जैसे परीक्षक कुलपति के आँख के तारे हैं। इन्ही की बदौलत रिजल्ट समय पर निकालेगा और फिर सत्र नियमित होने पर राज्यपाल की शाबाषी मिलेगी कुलपति को।

पुराने वक्त के ज्ञान पिपासु कंधे पर झोला लटकाए देषाटन पर निकल जाते थे। प्रो0 सुखराम का जेठ और आषढ़ आधुनिक देषाटन में बीतता है। झोला की जगह छोटी अटेैची है। इसमें अंगोछा तो पुराने जमाने वाला है लेकिन सफारी सूट आधुनिक है। एक दर्जन लाल पैन हैं। प्रो0 सुखराम मेरठ, झाँसी, बरेली के विष्वविद्यालय में हो रहे मूल्यांकन में कापियों में कबड्डी खेल आए। अब आगरा की बारी है। इसके बाद कानपुर जाना है।

शैक्सपीयर ने कहा है ‘म्यूजिक प्यार का भोजन है, बजाए जाओ। पुराने नए गाने सुनने के लिए अब ट्रांजिस्टर की कोई आवष्यकता नहीं !मोबाइल में मधुर धुनें भरी पड़ी हैं। 56 बसन्त देख चुके एक षिक्षक ने मूल्यांकन टेबिल पर मोबाइल घर दिया है। माचिस जैसे मोबाइल में से आ रही ‘ मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई’ की ध्वनि पर बूढ़ी उँगलियाँ उत्तर पुस्तिकाओं पर मचल रही हैं पर पास बैठे कुछ नौजवान परीक्षक नाक भौं सिकोड़ कर फड़कता हुआ गाना सुनने की फरमाइष कर रहे है। अचानक हॉल में ‘वाह’ की जोरदार आवाज से परीक्षकों की लाल कलमें थम गई। यह विस्फोट सुखराम के मुहँ से हुआ था। बेचारे सुखराम अपनी आवाज पर खुद भी चौंक गए। परीक्षक साथियों ने सवाल उछाला, ‘‘क्या हुआ बंधु ?’’ सुखराम हक्के बक्के और मौन। पडौसी परीक्षकों को सुखराम की कापी से 500 सोै का एक नोट आलपिन से जुड़ा दिखाई दिया। दूर बैठे परीक्षकों ने अपना सवाल ‘क्या हुआ’ दोहराया। सुखाराम ने जबाब दिया, ‘‘मुर्गी ने अण्डा दिया है।’’

हॉल में ‘समोसे मँगाओ’ की अवाज गूँजे इससे पूर्व प्रो0 सुखराम ने नोट पर अपनी लाल कलम गड़ा दी मानो मुर्गी अपने अण्डे को सेह रही हो।

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