Sunday, July 31, 2011

Melbourne --6

मेलबर्न --,परदेश में हिंदी की जंग ने देश में राष्ट्रीय भाषा होते हुए भी हिंदी को अपनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है. यह हेरत की बात है लेकिन खुशी की नहीं .पर मेलबर्न में हिंदी की लड़ाई की खबर सुन मुझे हेरत भी हुई और खुशी भी.पैसा ,सेहत और सम्मान की खोज में भारतीय विदेश में बस रहे है. प्रतिभा और लगन इसे लोगों की मदद कर रही है .विदेश में बसने के 10-१५ वर्ष निकलने पर सब को अपनों की याद सताती है . शुरू के साल शानदार जीवन जीने में निकल जाते हैं. लेकिन सब कुछ पाने के बाद अचनक दुनिया सुनी सुनी सी लगती है और यादें पीछा करती हैं. इस बात का आभाष मुझे मेलबर्न में बसे भारतीयों से बात करने के बाद हुआ.
वतन के प्रति निष्ठा एक भले इंसान में जीवन परियन्त रहती है.वतन से दूर रहकर यह निष्ठा और मजबूत होती है.धीरे धीरे यह निष्ठा उसका बल बनती है. मेलबर्न के भारतीय अपने देश पर आई विपिदा के लिए मदद के हाथ हमेशा बढ़ाते रहे है. यही हाल भाषा के प्रति उनकी ममता का है.कई भारतियों ने काव्य संध्या के बहाने आपस में एकदूसरे की लिखी कविताओं को सुनाने का सिलसिला शुरू किया है.लखनऊ के दिनेश मोहन श्रीवास्तव हिंदी पुष्प नाम से मासिक पत्र निकालतेहैं.बेरोवी मेलबर्न से ३० किलोमीटर दूर सवा लाख लोगो का
उपनगर है. यहाँ रहने वाले अनिल शर्मा इंडिया एट मेलबर्न नाम से साप्ताहिक पत्र निकालते हैं .मेरे एक फ़ोन पर मुलाक़ात के लिए तेयार हो गए .सुभाष शर्मा अलीगढ के है. ३० साल से है. हिंदी की कविता करते हैं और हिंदी प्रेमिओं को एक सूत्र में बाँध रखा है .ये लोग हिंदी की लड़ाई मेलबर्न में लड़ रहे हैं.इन लोगों ने स्कूलों में हिन्दी भाषा को पाट्यक्रम में शामिल करने की जंग छेड़ रखी है.विक्टोरिया सरकार ने एक स्तर पर बात मानते हुए कुछ स्कूलों में इसे पढाना शुरू तो कर दिया है लेकिन हिंदी को रास्ट्रीय पाठयक्रम में शामिल करने की मांग ये लोग बनाए हुए हैं .जिस देश में हिंदी का नामोनिशान न हो वहां कुछ कंठ हिंदी जाप करें ,यह जानकारी १२००० की.मी. दूर मेरा कलेजा चोडा करने वाली है.
अप

Friday, July 29, 2011

मेलबर्न--५, अछा है तो सीखना होगा

मेलबर्न--५,   अछा है तो सीखना होगा
सवा दो करोड़ की आबादी वाला आस्ट्रेलिया सभी को भा रहा है..अपनों की कमी झेलने वाले भी मोका मिलते ही इसकी तारीफ में बह जाते हैं. यहाँ आदमी अपने टेलेंट को उभ़ार सकता है.यह बात एक टेक्सी ड्राईवर और उसकी बीबी की है.उनका कहना है की पिछले ११ साल में उन्हें इस देश से कोई शिकायत नहीं. इस देश में अनेक चीजें  yesi   है जिन्हें सीखा जा सकता है.
आस्ट्रेलिया का इतिहास ३ सो सालों से कम का है .इस इतिहास का प्रदर्शन करने में सरकार की मेहनत साफ झलकती है.१७७८ में अन्रेजों ने यहाँ कदम रख्खा . खूब मारकाट की .इस धरती के इतिहास के काले पन्ने को  मेलबर्न के कई मूजियम में शानदार और ईमानदारी से दर्शाया गया है.मेलबर्न में रुकने का यही तो मजा है की यहाँ के मूजियम और लाब्रेरारी का भ्रमण  करने में आनद की अनुभूति होती  है. स्टेट लाब्रेररी में पुस्तके ही नहीं वरन यहाँ की कई गेलरी किसी मूजियम से कम नही.मूजियम में दर्शकों को केसे आकर्षित किया जाता है ,कलाक्रतिओं को केसे प्रदर्शित किया जाना चाहिए यह सब य्याहान से शिखा जाना चाहिए.१८ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मेलबर्न की पुरानी जेल भी मूजियम सरीखी है इस जेल की एक  कालकोठरी में फतेहचंद ऑफ इंडिया लिखा मिला. इस भारतीय ने यहाँ किसी का maar     डाला था   किया था और फासी की सजा पाई थी. इसी जेल में मुझे नेड केली के बारे में जानने का मोका मिला. २३ साल के इस आयरिश लड़के को १८८० में फांसी पर लटकाया गया. इसने अग्रेजी हुकूमत को ४ दोस्तों के साथ मिलकर जबरदस्त चुनोती दी थी. नेड पर ६-७ फिल्में बन चुकी हैं.नेड पर अलग आलेख बन सकता है. 
मेलबर्न में २३३ देशों के लोग बसे है. भारतीयों की रुची दिनप्रतिदिन  बढ रही है. आस्ट्रलिया का अतीत और वर्तमान किसी फिल्मी कहानी से कम रोचक नहीं.यंहा की सरकार इस रोचकता को बढाने में किसी मायने  में कम नही. अच्छी बातों को तो सीखा  जा सकता है. 
 

 
 
 

Tuesday, July 26, 2011

Melbourne ----3


परदेश तो परदेश है.
 इंसान ने जब से आँखें खोली है वह जीवन को बेहतर और बेहतर बनाने की दिशा में संघर्षरत है.यूरोप ,अमेरिका और आस्ट्रेलिया एशिया के बाशिंदों को सदेव से आकर्षित करते रहे है.साधन संपन्न लोग अपने बच्चों को विदेश भेजकर अपने लोगो में विशिष्ट दर्जा प्राप्त करते रहे है. गांधी नेहरु के वक्त में परदेश जाना बहुत मुश्किल था. आजकल अपेक्षाकृत सरल है. इसी कारण में बार बार मेलबर्न आ जाता हूँ. अपने हर प्रवास में में मेलबर्न की सड़कों को नापता हूँ ,यहाँ के म्यूजियम को निहारता हूँ ,गोरे और उनकी मेमो-बच्चों की जीवन शेली को जानने की कोशिश करता हूँ .साथ ही कल्पना करता हूँ की यह सब वातावरण हमारे देश में हमारी सरकारे क्यों नहीं दे पाती? ६ दशक से अधिक निकल गए देश को आजाद हुए.
\ जुलाई के मध्य में में जब यहाँ आया तब अपने यहाँ बाबा रामदेव,अन्ना हजारे, सुरेश कल्मारी ,और यु पी में चुनाव की तेयार करती राजनीतिक पार्टियों और राजनीत को व्यपार समझने वाले नेताओं को छोड़कर आया था. इन्ही की चर्चाएँ अखबारों की सुर्खियाँ थीं.
यहाँ. आकर मुझे अजीब सा लगा.मेलबर्न में सब कुछ शांत.टंड जरूर पर सुखद .सड़कें साफसुथरी.और इन पर तेज तेज कदमों से अपने अपने काम पर जाते लोग.जेसे दिल्ली का कनाट प्लेस वेसी ही भीड़ भाड मेलबर्न के फेडरेशन स्कायर पर मिलेगी .यह स्थान मोज मस्ती और सांस्कृतिक गतिविधिओं का अदभुत केंद्र है .ऐसा नहीं सरकार के पास समस्याएं नहीं .मजेदार और सुखद बात यह है की सरकार जनता की मांग उठने से पहले जनता की असुविधाओं पर ध्यान देना शुरू कर देती है.में विक्टोरिया पार्लियामेंट में एक घंटे का प्रश्न काल में गया था. पानी ,बिजली और शिक्षा ,ट्रेफिक आदि मुद्दों चर्चा के दोरान सदस्यों की हास्य और व्यंगात्मक शेली से संसद गूंज रही थी .नेहरु के युग में. हमारे यहाँ ऐसा होता था. एस सन्दर्भ में तरकेशारी सिन्हा का नाम याद किया जा सकता है. लेकिन अब यह सपना है.पुस्तकालय  और समुदायक स्वास्थ्य केन्द्रों पर सरकार का ध्यान पूरा पूरा है .इन जगहों पर जाकर तबियत खुश हो जाती है.इलाज और दवाएं चाहे कितनी आधुनिक और बिना मिलावट के क्यों न हो यहाँ बीमार होने पर अपने वतन की याद रह रह कर आती है.बीमार व्यक्ति को डाक्टर से वक्त लेने में १५-१५ दिन इन्तजार करना पड़ता है. चिकितसकों तथा नर्सों  की कमी  है. सरकार इन्हें बसाने में वरीयता दे रही है.
गत वर्ष मेलबर्न में हुए नस्ली हमलों ने भारतियों को हिला दिया. यहाँ आने वाले भारतीय छात्रों की सखा में गिरावट आ गयी.सरकार की विशव स्तरपर छवि धूमिल हुई,साथ ही अर्थ व्यवस्था पर असर पड़ा.  परिणामस्वरूप सरकार ने सख्त कदम उठाय और गोरे हमलावरों पर लगाम लगाईं.
मेरी मुलाक़ात  बहुत से भारतीयों से हुई .कोई १० साल से है तो कोई २-३ सालों से. यहाँ की साफ सुथरी जिन्दगी से  सब खुश हैं.जीवन स्तर अछा है लेकिन पूरी जिन्दगी बसने के नाम पर हिचकी लेते नजर आते है. अपनी अपनी  जुबान में कहते  है की अपनों की याद आती  है.कुछ दिनों काम कर लें फिर वापस तो जाना ही है.गोरे शिष्टाचार में किसी से कम नहीं  पर इनके मन में क्या है नहीं मालुम .चाहे पी .आर  ले लो या सिटिजनशिप परदेश तो परदेश है.

Thursday, July 21, 2011

मेलबर्न आजकल ---२

गोरे काले का भेद तो है
 साफ सुथरी हवा,पानी,मौज मस्ती के बेहिसाब साधन घुमने  फिरने की बेहिसाब जगह, प्रदुषण नाम की चीज नहीं,मिलावट और भ्रटाचार का नामोनिशान नहीं ,मंत्री और अफसरों की बेईमानी के किस्से  नहीं.यह सब मेलबर्न की धरती पर दिखाई दे रहा है --हर क्षण .लेकिन एक जहर ऐसा है जो घुला हुआ है इस शानदार धरती की गोरी चमड़ी में .रंगभेद नाम का यह जहर मेरे अंदर दहशत पैदा कर चुका है. सन २००९ में ऐसा नहीं था जब में दिसम्बर माह में मेलबर्न की सड़कों पर बेखोफ -बेझिझक  पैदल या ट्राम में घूमता था. पिछले साल इन्ही सडकों पर घटी नस्ली घटनायों ने सोचने पर मजबूर किया है की  रहने के लिए दुनिया के  शानदार शहरों में शुमार ही नहीं बल्कि अब्बल आने वाले मेलबर्न शहर में यूरोप की तरह रंगभेद के गुबार क्यों  उठने लगे हैं ?क्या यह बात सही है?
मेरा उत्तर हाँ है और इसी कारण में अपने १ माह के मेलबर्न प्रवास में समुचित सावधानी बरत रहा हूँ .
गोरों के अंदर मौजूद चमड़ी भेद मुझ जेसे इंसान में ही नहीं यहाँ की सरकार और अन्य स्वतन्त्र संस्थायों को भी चितित किये है. मेलबर्न रेडिओ  स्टेशन जिसे एस बी एस के नाम से जाना जाता है ने एक सर्वे कराया है की यहाँ वास्तव में रंगभेद   है या नहीं? आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवेर्सिटी भी इस विषय पर काम कर रही है.  यही पर मिली एक जानकारी के मुताविक एक गोरे छात्र को १० स्थानों पर आवेदन करने पर नोकरी मिल जाती है जब की एशियन को नोकरी के लिए १६ स्थानों पर आवेदन करना पड़ता है.
पिछले साल भारतीय समुदाय के लोगों के साथ यहाँ जो कुछ हुआ हम सब चिंतित हुए, यहाँ की सरकार भी. सरकार द्वारा की गयी सक्ती के बाद
यहाँ बसे भारतियों में फिर से खुली हवा में सांस लेने की हिम्मत जगी है. पॉइंट कुक जहां मुझे १ मiह रहना है ,में कई  भारतीय मिले जो यहाँ की नागरिकता के लिए आवेदन करने की सोच रहे हैं.मेरे जेसे उम्रदराज के लिए यहाँ बसने का सोच मन को नहीं भाता पर जिंदगी की शुरुआत करने वाले नोजवान के लिए यहाँ बसने का विचार बुरा नहीं.
और रही बात रंगभेद और फिर फिर होने वाले नस्ली हमलो की, इन्हे पूरी तरह समात करना किसी सरकार के बूते की बात नहीं. इतिहास  बताता है सन १७७८ में यूरोपियनओं  ने आस्ट्रेलिया की धरती पर कदम रखा ,तब से वे इस रंगभेद  की बुराई से ग्रसित है.
हम भारतियों को यहाँ से पलायन करके नहीं बल्कि यहाँ जमे रहकर रंगभेद के खिलाफ  वातावरन बनाना होगा तभी हम  अपने देश का नाम रोशन कर सकते हैं. ..

मेलबर्न आजकल

मेलबर्न आजकल
 
 मेलबर्न से २५ किलोमीटर दूर बसे उपनगर पॉइंट कुक में डेरा डाले मुझे लगता है की यहाँ  सरकार और जनता एकदूसरे के पूरक है.दोनों में किसी बात का कोई टकराव नहीं. सरकार जीवन को बेहतर बनाने में लगी   है तो तेज कदमो से सड़कें नापते गोरे काले सभी सरकार के बनाए कायदे कानूनों का पालन करने में मगन हैं .
डेड से तीन करोड़ रू.  की लागत वाले वातानुकूलित  मकान और शानदार बाजार  देखकर मन में विचार आता है की हमारे देश के गाँव की ज़मीन सुनिओजित शहर विकसित क्यों नहीं कर पाती? गावों के लोग शहर की ओर क्यों पलायन कर रहे हैं? यहाँ ऐसा नहीं.  शहर की हर सुविधा यहाँ है तो कोन मेलबर्न शहर के मल्टीस्टोरी इमारतों में रहेगा? रेल,बस, कोलोनाजेशन सब कुछ प्राइवेट लेकिन सरकार के बनाए कानूनों के तहत. इन कानूनों
 का पालन कराने में सरकार की इच्छा शक्ति और ईमानदारी साफ़ झलकती है.ऐसा नहीं की शरारती और अपराधी किस्म के लोग यहाँ हे ही नहीं .ये अपराधी लोग सरकारी डंडे से जरूर डरते होंगे तभी पॉइंट कुक  जेसे दर्जनों उपनगरों में लकड़ी और काच के बने मकानों में लोग बेखोफ रह  रहे हैं. 
पॉइंट कुक की आबादी २५ हजार  से अधिक नहीं.  फिर भी माल्नुमा संस्कृति से लेस   बाजार में सरकारी  लाब्रेरी है ,पूरी तरह आधुनिक.इस लाब्रेरी में हिंदी की एक अलमारी देखकर मन प्रफुलित हुआ .गिरिराजकिशोर और पुष्पा मैत्री की किताबों  को छूकर देखा. मालूम करने पर पता चला की इस इलाके में हिंदी पाठकों की संखा अच्छी खासी है. सन २०३० में सरकार ने इस उपनगर की आबादी ५० हजार से ज्यादा करने की ठानी  है.  
अमन चेन और प्रदुषण मुक्त  इस उपनगर के माल में यह देखकर अचरज हुआ की हर भारतीय दूसरे लोगों की तरह हर कायदे क़ानून को  अपना रहा था लेकिन अपने देश में इसी भारतीय को क़ानून को टेंगा दिखाने में मजा आता  है.बंद करता हूँ यह कहकर .......जेसा देश वेसा भेष