Saturday, June 26, 2010

कलम के नीचे अण्डा


अशोक बंसल

प्रो0 सुखराम विष्वविद्यालय द्वारा कराए जा रहे उत्तर पुस्तिाकाओं के मूल्यांकन में जुटे है। कापियाँ जाँचने में शरीर पसीना छोड़ रहा है। पर प्रोफेसर साहब कापियों के पन्नें धकापेल पलट रहे हैं। कापी के पन्ने चिपके पड़े हैं सो सुखराम अंगुलियों को कभी पसीने से सने माथे पर लगा चिकनाई देते हैं तो कभी जीभ के अग्रभाग पर मौजूद लार में भिगोकर । ऐसा करने से पन्ने पलटने में सुविधा रहती है। 5 घन्टों में 300 कापियाँ जाँचनी है। एक दिन में 3 हजार रू0 की दिहाड़ी बैठ रही है।

प्रो0 सुखराम मेराथन गति से कापियोँ का मूल्यांकन कर रहे हैं। इतिहास के प्रोफेसर हैं पर उनकी करामती कलम किसी भी विषय की कापी पर नम्बर टपकाने में सक्षम है ! उनके इतिहास के बंडल में भूलवष कुछ हिन्दी की कापियाँ निकलने लगी। प्रो0 सुखराम को सुध ही न रही । इतिहास के साथ हिन्दी भी जाँच दी। काफी देरी बाद भूल सुधार किया। आसपास की कुर्सियों पर बैठे अन्य प्रोफेसरों को पास वाले की गलतियों पर हँसने -रोने की फुरसत नहीं सो सुखराम अपनी करामात पर खुद ही हँसे । थोड़ी देर तक पन्नों पर नम्बर टपकाने की गति धीमी पड़ी लेकिन क्षणभर बाद कलम ने गति फिर पकड़ ली।

प्रो0 सुखराम के काम करने की गति कुलपति को भा रही है। एक जमाना था जब विष्वविद्यालय षिक्षा के स्तर को सुधारने के लफड़े में माथापच्ची करते थे। स्तर तो गया भाड़ में, विष्वविद्यालय के आर्थिक संसाधन गड़बड़ा गए। स्ववित्त पोषित योजना आई। विष्वविद्यालय मालमाल हो गए। उच्च षिक्षा की दुकानें गाँव-गाँव खुल गई। परीक्षा तो हो गई पर कापियाँ कैसे जँचे। लाखों कापी और षिक्षक गिनती के । ऐसे में सुखराम जैसे परीक्षक कुलपति के आँख के तारे हैं। इन्ही की बदौलत रिजल्ट समय पर निकालेगा और फिर सत्र नियमित होने पर राज्यपाल की शाबाषी मिलेगी कुलपति को।

पुराने वक्त के ज्ञान पिपासु कंधे पर झोला लटकाए देषाटन पर निकल जाते थे। प्रो0 सुखराम का जेठ और आषढ़ आधुनिक देषाटन में बीतता है। झोला की जगह छोटी अटेैची है। इसमें अंगोछा तो पुराने जमाने वाला है लेकिन सफारी सूट आधुनिक है। एक दर्जन लाल पैन हैं। प्रो0 सुखराम मेरठ, झाँसी, बरेली के विष्वविद्यालय में हो रहे मूल्यांकन में कापियों में कबड्डी खेल आए। अब आगरा की बारी है। इसके बाद कानपुर जाना है।

शैक्सपीयर ने कहा है ‘म्यूजिक प्यार का भोजन है, बजाए जाओ। पुराने नए गाने सुनने के लिए अब ट्रांजिस्टर की कोई आवष्यकता नहीं !मोबाइल में मधुर धुनें भरी पड़ी हैं। 56 बसन्त देख चुके एक षिक्षक ने मूल्यांकन टेबिल पर मोबाइल घर दिया है। माचिस जैसे मोबाइल में से आ रही ‘ मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई’ की ध्वनि पर बूढ़ी उँगलियाँ उत्तर पुस्तिकाओं पर मचल रही हैं पर पास बैठे कुछ नौजवान परीक्षक नाक भौं सिकोड़ कर फड़कता हुआ गाना सुनने की फरमाइष कर रहे है। अचानक हॉल में ‘वाह’ की जोरदार आवाज से परीक्षकों की लाल कलमें थम गई। यह विस्फोट सुखराम के मुहँ से हुआ था। बेचारे सुखराम अपनी आवाज पर खुद भी चौंक गए। परीक्षक साथियों ने सवाल उछाला, ‘‘क्या हुआ बंधु ?’’ सुखराम हक्के बक्के और मौन। पडौसी परीक्षकों को सुखराम की कापी से 500 सोै का एक नोट आलपिन से जुड़ा दिखाई दिया। दूर बैठे परीक्षकों ने अपना सवाल ‘क्या हुआ’ दोहराया। सुखाराम ने जबाब दिया, ‘‘मुर्गी ने अण्डा दिया है।’’

हॉल में ‘समोसे मँगाओ’ की अवाज गूँजे इससे पूर्व प्रो0 सुखराम ने नोट पर अपनी लाल कलम गड़ा दी मानो मुर्गी अपने अण्डे को सेह रही हो।

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