Friday, September 10, 2010

बन्दूक का सिपाही बना कलम का सिपाही

बन्दूक का सिपाही बना कलम का सिपाही




अशोक बंसल



देश में शासन-प्रशासन की दुर्व्यवस्था और जन प्रतिनिधियों के अनाचारों पर यदि एक साधारण पुलिसकर्मी कलम चलाए तो हैरत तो होगी ही। पुलिसकर्मी सुरेश चाहर ने ऐसा ही किया है। मथुरा में सिपाही से सबइंस्पेक्टर बना सुरेश हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में एम.ए. है और पिछले दिनों हिन्दी में पीएचडी कर उसने अपनी अध्ययनशीलता का परिचय दिया है। हैरत इस बात की भी है कि एक हाथ में बन्दूक और दूसरे में कलम थामने वाले सुरेश की पीठ थपथपाने वाला कोई नहीं।



आगरा जिले की किरावली तहसील के 38 साल के सुरेश ने बताया कि किसान का बेटा होने के कारण उसने 1992 में पुलिस में सिपाही की नौकरी शुरू की। उसे बचपन से पढ़ने लिखने का शौक था। मथुरा में विभिन्न स्थानों पर सिपाही के रूप में तैनात रहते उसने अध्यापकों से संपर्क रखा और हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा देता रहा और पास होता रहा। सुरेश ने बताया कि मथुरा के के.आर.डिग्री कॉलेज के हिन्दी के प्रो0 रमाशंकर पाण्डेय और डॉ.अनिल गहलौत की प्रेरणा से उसने पी.एच.डी डिग्री के लिए काम शुरू किया। तीन वर्ष में वह सुरेश से डॉ0 सुरेश हो गया।



हिन्दी में प्रेमचन्द और अंग्रेजी में मिल्टन को पसन्द करने वाले सिपाही सुरेश ने बताया कि उसे पढ़ने लिखने का शौक अवश्य है लेकिन अपनी नौकरी में कभी कोई लापरवाही नहीं बरती। यह बात अलग है कि पुलिस की नौकरी में उसे दिलचस्पी नहीं और वह किसी कॉलेज में प्रोफेसर बन अध्ययन-अध्यापन में लगना चाहता है।



सुरेश अपनी विभागीय परीक्षा पासकर अब सबइन्सपेक्टर है और तैनाती पड़ोसी जिला हाथरस कोतवाली में है। उसने बातया कि पुलिस की नौकरी में रहते उसे जीवन और समाज को जानने का अच्छा मौका मिला है। इसका सदुपयोग उसने ‘तपस्या’ उपन्यास लिखकर किया है। सुरेश के गुरू मथुरा के.आर. कालेज के प्रोफेसर अनिल गहलौत ने बताया कि सुरेश उनके संपर्क में काफी अरसे से है। साहित्य के प्रति एक सिपाही का अनुराग देख कर वह खुद अचम्भे में हैं। ‘तपस्या’ उपन्यास उसकी लगन और ईमानदार सोच का नमूना है। डा0 अनिल ने बताया कि पिछले दिनों उनका प्रोफेसर मित्र छठे बेतन आयोग के लागू होने पर एरिअर के रूप में अच्छी रकम मिलने पर रिवाल्वर खरीदकर लाया था जबकि सुरेश अपना पहला वेतन मिलने पर दौड़ा-दौड़ा पुस्तक की दुकान पर गया और उसने प्रेमचन्द का गोदान खरीदा था।



अपनी उपलब्धियों पर मौन रहने वाले सुरेश ने बताया कि पुलिस विभाग और उसमें काम करने वाले छोटे-बड़े अधिकारी समाज के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। शोषित-पीड़ित को न्याय दिलाने में उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। दुःख तो इस बात का है कि पुलिस वाले अपने आपको पहचानने में भूलकर बैठे हैं बिलकुल वैसे जैसे जनता द्वारा चुने गये नेता।

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Wednesday, July 28, 2010

गीतकार शैलेन्द्र से जुड़ी हैं मथुरा की यादें


मथुरा, ‘‘होठों पर सच्चाई रहती है, दिल में सफाई रहती है, ‘‘ मेरा जूता है जापानी,’’ ‘‘आज फिर जीने की तमन्ना है’’ जैसे दर्जनों यादगार फिल्मी गीतों के जनक शैलेंद्र का बचपन मथुरा की गलियों में बीता। तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजे गए और अभिनेता राजकपूर की आंखों के तारे रहे शैलेन्द की मथुरा से जुड़ी अनेक यादों का स्मरण कर 90 साल के बाबूलाल की आंखे नम हो जाती है। बाबू लाल शैलेन्द्र के एक मात्र जीवित सहपाठी हैं जो मथुरा के किशोरी रमण इंटर कॉलेज में उनके साथ पढ़े और धौली प्याऊ कालोनी में पड़ोसी रहे। बाबूलाल रेलवे में फोरमैन की नौकरी से रिटायर हुए।



किसी जमाने में मथुरा रेलवे कर्मचारियों की कालोनी रही धौली प्याऊ की गली गंगासिंह के उस छोटे से मकान की पहचान सिर्फ बाबू लाल को है जिसमें शैलेन्द्र अपने भाईयों के साथ रहते थे। सभी भाई रेलवे में थे। बड़े भाई बीडी राव शैलेन्द्र को पढ़ा-लिखा रहे थे। बाबू लाल ने बताया कि मथुरा के राजकीय इंटर कॉलेज में हाईस्कूल में शैलेन्द्र ने पूरे उ0प्र0 में तीसरा स्थान प्राप्त किया। वह बात 1939 की है। तब वे 16 साल के थे। केआर इंटर कॉलेज में आयोजित अंताक्षरी प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे और खूब ईनाम जीतते थे। इसके बाद शैलेन्द्र ने रेलवे वर्कशाप में नौकरी कर ली। बाबूलाल भी रेलवे में लग गए। कुछ दिन मथुरा रहकर शैलेन्द्र का तबादला मांटुंगा हो गया बाबूलाल मथुरा मे ही रहे।



बाबू लाल ने बताया कि शैलेन्द्र से वे भी मिलने मुंबई जाते रहते थे। वे भी मथुरा आते रहते थे। मथुरा आते ही वे गुनगुनाते थे- ‘‘जहां पर मेरी मथुरा नगरी, वहां पर जमुना जल, तू चला चल’’। अपनी गली गंगासिंह के नुक्कड़ पर बैठकर वे कहते थे- मरने के बाद चरचा होगी तेरी गली में, मरना तेरी गली में, जीना तेरी गली में। बाबूलाल ने बताया कि कुछ साल बाद खबर आई कि शैलेन्द्र ने नौकरी छोड़ दी है। हम मुंबई गए तो उन्होंने पूरा किस्सा सुनाया कि उन्होंने दस गीत लिखे थे। पैसे की जरूरत थी। राजकपूर से एक बार पहले भी मिल चुके थे। दस गीतों के साथ उन्होंने उनसे मिलने का वक्त मांगा। उन दिनों राजकपूर बरसात फिल्म की तैयारी में जुटे थे। तय वक्त पर शैलेन्द्र राजकपूर से मिलने घर से निकले तो घनघोर वारिश होने लगी। कदम बढ़ाते और भीगते शैलेन्द्र के होंठों पर ‘बरसात में तुम से मिले हम सनम’ गीत ने अनायास ही जन्म ले लिया। अपने दस गीत सौंपने से पहले शैलेन्द्र ने इस नए गीत को राजकपूर को सुनाया। राजकपूर ने शैलेन्द्र को सीने से लगा लिया। दसों गीतों का पचास हजार रूपये पारिश्रमिक उन्होंने शैलेन्द्र को दिया। नया गीत बरसात का टाइटिल गीत बना। बाबूलाल ने बताया कि शैलेन्द्र ने नौकरी छोड़ दी और विरार में ‘रिमझिम’ नाम से कोठी बना ली।

एक सवाल के जबाब में बाबूलाल बोले कि उस जमाने में उन्हें याद नहीं कि शैलेन्द्र प्रसिद्ध थे या नहीं, पर मुंबई जाने पर उनकी संपन्नता दिखाई देती थी। उन्होंने कहा मैंने रिमझिम में शंकर जयकिशन को बैठे कई बार देखा। दो गाड़ी थी शैलेन्द्र के पास। एक गाड़ी वे मेरी सेवा में लगा देते थे। एक दिन मालूम पड़ा कि शैलेन्द्र राजकुमार के साथ गाड़ी में बैठकर गए हैं। यह बात उनकी गजभर का घूंघट निकालने वाली पत्नी ने बताई। शैलेन्द्र का विवाह बीना स्टेशन मास्टर की बिटिया से हुआ था। मैं इंतजार में बैठा था। शैलेंद्र ने लौटकर बताया कि राजकपूर को कल एक गीत लिखकर देना है। मैं सो गया और वे पीते रहे। सुबह चार बजे वे उठे और जुहू बीच की ओर निकल गए। वापस आए तो होंठो पर मुस्कराहट थी और हाथ में पकड़े कागज पर गीत लिखा था। बाद में शैलेन्द्र ने बताया कि समुद्र की मचलती लहरें उनके गीतों को प्रेरणा देती हैं।



शैलेंद्र ने बाबूलाल को एक बार बताया कि राजकपूर ने तीसरी कसम फिल्म बनाने से उन्हें मना किया था। दरअसल, शैलेन्द्र को फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम बहुत पसंद आई। उन्होंने गीतकार के साथ प्रोड्यूसर बनने की ठानी। राजकपूर और वहीदा रहमान को लेकर तीसरी कसम बना डाली। खुद की सारी दौलत और मित्रों से उधार की भारी रकम फिल्म पर झोंक दी। फिल्म डूब गई। कर्ज से लद गए शैलेन्द्र बीमार हो गए। यह 1966 की बात है। अस्पताल में भरती हुए। तब वे ‘‘जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी याद में, नजरों को हम बिछायेंगे’’ गीत की रचना में लगे थे। शैलेन्द्र ने राजकपूर से मिलने की इच्छा जाहिर की। वे बीमारी में भी आरके स्टूडियों की ओर चले। रास्तें में उन्होंने दम तोड़ दिया। यह दिन 14 दिसंबर 1966 का था। मौके की बात है इसी दिन राजकपूर का जन्म हुआ था। शैलेन्द्र को नहीं मालूम था कि मौत के बाद उनकी फिल्म हिट होगी और उसे पुरस्कार मिलेगा।

बाबूलाल ने बताया कि उन्हें न तो गीत तकनीक की समझ है और न साहित्य से लगाव, पर अपने मित्र शैलेन्द्र के गीतों के मुखड़े उन्हें कंठस्थ है। सोते-जागते वे इन्हें गुनगुनाया करते हैं। शैलेन्द्र तीसरी कसम की नाकामयाबी के बाद के बाद मथुरा आए तो बोले यार एक फिल्म बनाने की इच्छा है जिसमें केआर इंटर कॉलेज और अपनी गंगा सिंह गली के दृश्य फिल्माना चाहूंगा। शैलेन्द्र की यह इच्छा पूरी नहीं हुई।शैलेंद्र के बेटे शैली श्ैालेंद्र मुम्बई में फिल्मी गीतकार हैं1

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Saturday, June 26, 2010

वृन्दावन में मौजूद है एक ग्रन्थ समाधि


अशोक बंसल



कृष्ण की क्रीड़ा स्थली वृन्दावन में साधु-सन्तों की समाधियों के मध्य एक ऐसी अनूठी समाधि भी हैं जिसमें किसी इंसानी काया के अवशेष न होकर सैंकड़ों वर्ष पुराने हस्तलिखित ग्रन्थों का भंडार हैं ! यह समाधि विश्व में अपने तरीके की अकेली समािध है और वृन्दावन के विद्वान समय समय पर इस ग्रन्थ समाधि के उत्खनन की माँग करते रहे हैं ताकि समाधि में दफन दुर्लभ ग्रन्थों को जाना जा सके।

वृन्दावन मे कालीदह घाट पर स्थित विशाल टीले पर 511 फीट ऊँचे लाल पत्थर के आकर्षक मदन मोहन मन्दिर, जिसके आँगन में दुर्लभ ग्रन्थ समाधि है, के निर्माण की कथा बहुत रोचक है। मथुरा गजेटियर के मुताबिक कालीदह घाट के पास स्थित टीले पर वैष्णव सम्प्रदाय के प्रबल उपासक सनातन गोस्वामी का डेरा था। बात साढे़ चार सोै वर्ष पुरानी है । एक दिन यमुना नदी में काली मर्दन घाट पर सामान से भरी नाव फंस गई। सामान मुल्तान के खत्री व्यापारी रामदास का था और वह आगरा की ओर कूच कर रहा था। परेशान रामदास टीले पर बैठे सन्त सनातन के पास गया और नाव फंसने की बात कही। सनातन ने अपने मदनमोहन मन्दिर में शीष नवाने का सुझाव दिया। व्यापारी रामदास ने ऐसा ही किया और उसकी पानी में फंसी नाव चल पड़ी । आगरा से लौटकर रामदास ने सनातन गोस्वामी के मदन मोहन मन्दिर केा लाखों रूपया खर्चकर विशाल और आकर्षक बना दिया। विक्रम सं0 1726 में औरगजेब की फौजों ने वृन्दावन में धाबा बोला और अनेक मन्दिरों का जमकर घंस किया। मदन मोहन मन्दिर पर भी आक्रमण हुआ । मन्दिर के पार्श्व में समाधि बाड़ी है। इस मन्दिर में सेवायत गोस्वामियों की अनेक समाधियाँ है। सनातन गोस्वामी और उनके भाई रूप गोस्वामी संस्कृत भाषा के प्रकांड पडित थे और उन्होनें अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। विद्वानों का मत है कि औरंगजेव के आक्रमण की खबर सुन सनातन और रूप गोस्वामी के भक्तों ने अनेक ग्रन्थों को बक्सो में बन्द कर गोस्वामियों की समाधियों के मध्य एक खाली जमीन में दफना दिया । बाद में इस स्थान पर संगमरमर की समाधि का रूप दे दिया गया जो आज भी सुरक्षित हैं। इस समाधि पर ‘गन्थ-समाधि’ लिखा है।

ब्रज संस्कृति के प्रसिद्व विद्वान एवं ‘वृन्दावन शोध संस्थान’ के पूर्व निदेशक डा0 नरेश चन्द्र बंसल ने बताया कि गन्थ समाधि में सनातन, रूप और जीव गोस्वामी जैसे ग्रन्थकारों के हस्तलिखित गन्थ होने की पूरी सम्भावनाऐं है। मन्दिर के सेवायत अपने पूर्वजों की इस निधि को जस का तस जमीन में दफन रखना चाहते हैं। लेकिन इस राष्ट्रीय घरोहर को बाहर निकाला जाना बेहद आवश्यक है। इससे वृन्दावन का गौरव बढे़गा और सनातन धर्म के इतिहास पर नई रोशनी पड़ेगी । नरेश बंसल का कहना है कि पुराने जमाने में ग्रन्थों को सुरक्षित रखने की तकनीक बेहद कारगार थी। गन्थ समाधि के उत्खनन से इस तकनीक का भी पता चलेगा।





कलम के नीचे अण्डा


अशोक बंसल

प्रो0 सुखराम विष्वविद्यालय द्वारा कराए जा रहे उत्तर पुस्तिाकाओं के मूल्यांकन में जुटे है। कापियाँ जाँचने में शरीर पसीना छोड़ रहा है। पर प्रोफेसर साहब कापियों के पन्नें धकापेल पलट रहे हैं। कापी के पन्ने चिपके पड़े हैं सो सुखराम अंगुलियों को कभी पसीने से सने माथे पर लगा चिकनाई देते हैं तो कभी जीभ के अग्रभाग पर मौजूद लार में भिगोकर । ऐसा करने से पन्ने पलटने में सुविधा रहती है। 5 घन्टों में 300 कापियाँ जाँचनी है। एक दिन में 3 हजार रू0 की दिहाड़ी बैठ रही है।

प्रो0 सुखराम मेराथन गति से कापियोँ का मूल्यांकन कर रहे हैं। इतिहास के प्रोफेसर हैं पर उनकी करामती कलम किसी भी विषय की कापी पर नम्बर टपकाने में सक्षम है ! उनके इतिहास के बंडल में भूलवष कुछ हिन्दी की कापियाँ निकलने लगी। प्रो0 सुखराम को सुध ही न रही । इतिहास के साथ हिन्दी भी जाँच दी। काफी देरी बाद भूल सुधार किया। आसपास की कुर्सियों पर बैठे अन्य प्रोफेसरों को पास वाले की गलतियों पर हँसने -रोने की फुरसत नहीं सो सुखराम अपनी करामात पर खुद ही हँसे । थोड़ी देर तक पन्नों पर नम्बर टपकाने की गति धीमी पड़ी लेकिन क्षणभर बाद कलम ने गति फिर पकड़ ली।

प्रो0 सुखराम के काम करने की गति कुलपति को भा रही है। एक जमाना था जब विष्वविद्यालय षिक्षा के स्तर को सुधारने के लफड़े में माथापच्ची करते थे। स्तर तो गया भाड़ में, विष्वविद्यालय के आर्थिक संसाधन गड़बड़ा गए। स्ववित्त पोषित योजना आई। विष्वविद्यालय मालमाल हो गए। उच्च षिक्षा की दुकानें गाँव-गाँव खुल गई। परीक्षा तो हो गई पर कापियाँ कैसे जँचे। लाखों कापी और षिक्षक गिनती के । ऐसे में सुखराम जैसे परीक्षक कुलपति के आँख के तारे हैं। इन्ही की बदौलत रिजल्ट समय पर निकालेगा और फिर सत्र नियमित होने पर राज्यपाल की शाबाषी मिलेगी कुलपति को।

पुराने वक्त के ज्ञान पिपासु कंधे पर झोला लटकाए देषाटन पर निकल जाते थे। प्रो0 सुखराम का जेठ और आषढ़ आधुनिक देषाटन में बीतता है। झोला की जगह छोटी अटेैची है। इसमें अंगोछा तो पुराने जमाने वाला है लेकिन सफारी सूट आधुनिक है। एक दर्जन लाल पैन हैं। प्रो0 सुखराम मेरठ, झाँसी, बरेली के विष्वविद्यालय में हो रहे मूल्यांकन में कापियों में कबड्डी खेल आए। अब आगरा की बारी है। इसके बाद कानपुर जाना है।

शैक्सपीयर ने कहा है ‘म्यूजिक प्यार का भोजन है, बजाए जाओ। पुराने नए गाने सुनने के लिए अब ट्रांजिस्टर की कोई आवष्यकता नहीं !मोबाइल में मधुर धुनें भरी पड़ी हैं। 56 बसन्त देख चुके एक षिक्षक ने मूल्यांकन टेबिल पर मोबाइल घर दिया है। माचिस जैसे मोबाइल में से आ रही ‘ मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई’ की ध्वनि पर बूढ़ी उँगलियाँ उत्तर पुस्तिकाओं पर मचल रही हैं पर पास बैठे कुछ नौजवान परीक्षक नाक भौं सिकोड़ कर फड़कता हुआ गाना सुनने की फरमाइष कर रहे है। अचानक हॉल में ‘वाह’ की जोरदार आवाज से परीक्षकों की लाल कलमें थम गई। यह विस्फोट सुखराम के मुहँ से हुआ था। बेचारे सुखराम अपनी आवाज पर खुद भी चौंक गए। परीक्षक साथियों ने सवाल उछाला, ‘‘क्या हुआ बंधु ?’’ सुखराम हक्के बक्के और मौन। पडौसी परीक्षकों को सुखराम की कापी से 500 सोै का एक नोट आलपिन से जुड़ा दिखाई दिया। दूर बैठे परीक्षकों ने अपना सवाल ‘क्या हुआ’ दोहराया। सुखाराम ने जबाब दिया, ‘‘मुर्गी ने अण्डा दिया है।’’

हॉल में ‘समोसे मँगाओ’ की अवाज गूँजे इससे पूर्व प्रो0 सुखराम ने नोट पर अपनी लाल कलम गड़ा दी मानो मुर्गी अपने अण्डे को सेह रही हो।

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Thursday, May 27, 2010

रामदेव जी! सिर्फ पैसे से नहीं आयेगी खुशहाली


अशोक बंसल

स्वकस्थ’ रहने के लिए योग जरूरी का सार्थक प्रचार कर अपने नाम की शोहरत बटोर चुके बाबा रामदेव अब देश की जर्जर काया का कल्प करने का ब्रत ले बैठे हैं । बाबा ने मान लिया है कि सफेदपोश नेताओं के आगे उपदेश की ढपली बजाकर देश में खुशहाली लाना बेमानी है। भारत स्वाेभिमान जवान संस्था का गठन कर बाबा देश प्रेम का अलख जगाने में जुट गये हैं। उहोंने देश वासियों के बीच स्विस बैंकों में जमा काले धन को स्वदेश लाने के सवाल को मुद़दा बनाया है ।बाबा की जुबान पर देश के काले धन के चौकाने वाले आंकडे हैं। मसलन स्विस बैंक में हमारे देश के नेता, व्याापारियों और अधि‍कारियों के तीन सौ लाख करोड की रकम काले धन के रूप में जमा है। इस धन को वापस लोने में मौजूदा सरकार कोई पहल नहीं कर रही है। अत्‍- अगले चुनाव में भारत स्वानभिमान जवान के लोग संसद में पहुंच कर सत्ताे की बागडोर सभालेंगे और स्विस बैंक में जमा काले धन को वापस लाकर देश को खुशहाल बनायेगे ।

राजनैतिक व आर्थिक चिंतन से शून्य बाबा की रणनीति संसद में अपने समर्थ्‍कों को भेजवाने में कामयाब हो पायेगी, यदि हां तो उनके समर्थक स्विस बैंक में जमा पैसे को देश में वापस ला पायंगे कि नहीं। यदि हां तो इस पैसे से देश की गरीबी कैसे दूर होगी, मजदूर किसान और वेरोजगार कैसे खुशहाल होंगे आदि प्रश्नों के उत्तदर बाबा के पास नहीं है । आजादी के बाद सत्ता् संभालने वाले नेता मजदूर किसानों को सब्ज बाग दिखाकर सत्ता पर बार बार काबिज होने के गुर सीख गये हैं । सत्तातधरियों की गरीबी तो दूर हो गयी है लेकिन देश में भूख से मरने वालों की उपस्थिति आज भ्‍ी बनी हुई है । ऐसा नहीं कि हमारे प्रजातांत्रिक देश के संविधान में सबकुछ गडबड है । संविधान में बर्णित सारे कायदे कानून  दुरूस्त है लेकिन सस्ताा पर काबिज नेता और इसकी चाहत में इर्दगिर्द घूमने वाले सफेद पोशों की फौज संविधान की रक्षा में नहीं बल्कि इसे ध्वेस्त करने में लगी है ।

ऐसे में बाबा और उनके अनुयायियों को समझना होगा कि हमारे देश में खुशहाली लाने का इलाज महज सत्ताा परिवर्तन नहीं बल्कि सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ व्यापक जन आन्दोलन की शुरूआत करना है । बाबा रामदेव ने योग को प्रचारित करने में पांच वर्ष से जयादा का वक्त लगाया तब उन्‍हें हमारे मानस पर योग की सता काबिज करने में कामयाबी मिली1 सिर्फ राजनैतक ताकत हासिल कर देश की गरीबी और भ्‍ुखमरी दूर करने का बाबा का सपना कैसे सच सावित होगा । इस प्रश्न का उत्तर बाबा रामदेव के समर्थकों को देना होगा। क्या ही अच्‍छा हो यदि बाबा देश में मौजूदा भ्रष्टाकचार, अशिक्षा, अन्‍धविश्वाास आदि कुरीतियों के विरूद्व व्याापक और दीर्घ आन्दोलन की रूपरेखा बनायें। सम्भ व हे बाबा का यह आन्‍दोलन करोडों दिशाहीन युवकाें को सही रास्ता दिखाने का काम करे । मथुरा के बाबा जयगुरूदेव ने भी बाबा रामदेव की तर्ज पर दूरदर्शी पार्टी का गठन कर राजनीति में दस्ताक दी थी । सतयुग आयेगा और कलयुग जायेगा के लोकप्रिय नारे ने बाबा जयगुरूदेव के भक्तों की संख्या में जबरदस्त इजाफा किया था। बाबा की दूरदर्शी पार्टी ने उत्तर प्रदेश की सभ्‍ी सीटो पर चुनाव लडा लेकिन जबरदस्त निराशा हाथ लगी 1 तब बाबा ने राजनीति एक वैश्या है कहकर दूरदर्शी पार्टी को भंग कर दिया। अब उन्हों ने अपने प्रवचनों को आध्यात्म और समाज सेवा तक ही सीमित कर रखा है। बाबा जयगुरूदेव के आश्रम पर साल में लगने वाले कई विशाल भण्उारो में लाखों की भीड; आज जुटती हैा इन भण्डागरों में दहेज रहित विवाह को बाबा बढावा देते हैं ।बाबा विवादों से दूर हैं।

अंत में, बाबा रामदेव के सत्ता् में आने के सपने सच हो या न हो पर इतना निश्चि त है कि बाबा के राजनीति में आने के प्रयास का लाभ कोई एक राजनैतिक पार्टी  उठायेगी। बाबा रामदेव के हाथ वैसी ही निराशा हाथ लगेगी जैसे कि बाबा जयगुरूदेव को किसी वक्त लगी थी ।



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Monday, May 24, 2010

स्वर्ग की सीढ़ियों पर नरक की


परछाइयां



धार्मिक भावनाओं की तुष्टि के सिलसिले में वृंदावन का नाम कुछ ज्यादा ही श्रद्धा से लिया जाता है । बंगाल में तो बहुत पहले से मान्यता रही है कि स्वर्ग के दरवाजे पर दस्तक वृंदावन में रहकर ही दी जा सकती है । वैधव्य की आपदाओं से घिरी बंगाली स्त्रियों को बाकी जीवन के लिए वृंदावन एक जैसे ताकत देता रहा है । यही कारण है कि वृंदावन में बंगाली विधवाओं की उपस्थिति एक शताब्दी से लगातार बनी हुई है । ये विधवाऐं यहॉं स्वर्ग की आस लिए आती हैं और इसी आस के सहारे सारा जीवन नारकीय यातनाओं को भोगते गुजार देती हैं । इन अनपढ़, सीधी-सच्ची और दुखी औरतौं को इस बात का तनिक आभास नहीं होता कि उनकी वर्तमान हालत पुराने जन्मों के पापों का फल न होकर सुनयोजित ढंग से धर्म के नाम पर खड़े किए गए आडबंर के कारण है । वृंदावन में बंगाली विधवाओं की स्थिति एक बार जाल में फंसने के बाद कभी न निकलने वाली मछली की मानिद है ।

घटती-बढ़ती तकरीबन तीन हजार की गिनती में हमेशा बने रहने वाली विधवाओं के दुख-दर्द की कहानी वृंदावन के एक आश्रम से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ी है । वृंदावन के पत्थरपुरा इलाके में इस आश्रम की स्थापना 1914 में जानकीदास पटोरिया नाम के सेठ ने की थी । ‘भगवान भजनाश्रम’ नाम के इस आश्रम की स्थापना बंगाली बाइयों को अनैतिक काम में पड़ने से रोकने और जीवन यापन की व्यवस्था करने जैसे पवित्र उद्देश्य को लेकर की गई थी । विधवाओं के नाम पर आने वाली दान की रकम कीे नाम मात्र की पूंजी से खड़े किए भजनाश्रम का अरबों का बना दिया है । वृंदावन के अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल आदि स्थानों पर भजनाश्रम की शाखाऐं जड़ जमा चुकी हैं ा चित्रकूट के पास नवद्वीप और बंबई में भी आश्रम की अथाह संपति है । दूसरी ओर भजन करने वाली बाइयों की हालत इतनी दयनीय है कि पत्थर भी पिघल जाए ।

आठ घंटे मजीरे पीट-पीट कर मुक्त कंठ से ‘हरे राम राम राम हरे हरे’ का उद्घोषण करने के बाद एक बाई को ढाई सौ ग्राम चावल और एक रुपए की आश्रम मुद्रा की मुद्रा मिलती है ।

इंसान का वर्तमान जितना कष्टप्रद और असुरक्षित हो, भविष्य की असुरक्षा का भय उसे उतना ही सताता है । सतरह साल की जवान बाई से लेकर अस्सी साल की लाठी के बल पर चलने वाली या सड़क पर घिसटने वाली विकलांग बाई तक सभी ढ़ाई सौ ग्राम चावल पेट में झोंक कर जिंदा रहतीं हैं और एक रुपया बचा लेती हैं । सेवा कुंज, मदन मोहन का घेरा और गोविंद जी के घेरे में बनी कभी भी गिरने वाली अंधेरी, सीलन भरी और बदबूदार कोठरियों में सात-सात, आठ-आठ की संख्या में ठुसी बाइयां अपनी अमूल्य निधि ‘एक रुपए’ को रखने का सुरक्षित स्थान नहीं ढूंढ़ पाती । वे आश्रम के बाबूओं के पास ब्याज के लालच में इस रकम को जमा कराती रहती हैं । बाइयों के आगे-पीछे कोई होता नहीं, सो बाई के मरने बाद उसका धन भी छूट जाता है । अनेक बाइयां वृंदावन पलायन करते समय साथ में लाई हुई पूंजी भी ब्याज पर उठा देती हैं । शाम के वक्त वृंदावन में मंदिरों के आगे इन्हीं बाइयों को भिक्षावृति करते देखा जा सकता है । इस भिक्षावृति के पीछे संचय की प्रवृति भी है ।

बाईयॉं सुबह 10 बजे जब भजनाश्रम से अपनी कोठरियों की ओर कूच करती है तो रास्ते में पड़े झूठे पत्ते उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते । अस्थिपंजर बने रुग्ण शरीर उन्हें चाटने लगते हैं । बाइयों को आश्रम के कर्मचारी भी प्रताड़ित करने से पीछे नहीं रहते । एक बार एक बुढ़िया बाई को आश्रम की सीढ़ियों से केवल इसलिए धकिया दिया गया कि वह भजन के लिए कुछ देर से आई थी । रक्तरंजित बाई मिन्नतों और गिड़गिड़ाने के बाद भी आश्रम में प्रवेश न पा सकी। उस दिन उसे बिना चावल के ही गुजारा करना पड़ा । अमानवीयता और अत्याचार की मिलीजुली संस्कृति ने आश्रम के प्रति बंधुआ मजदूरों का सा भय और आंतक इन निरपराध बाइयों के मन में भर दिया है । आश्रम के कर्मचारियों के घरों का काम, सफाई, झूठे बर्तन साफ करना आदि भी इन्हीं बाइयों से लिया जाता है । इसके लिए उसे अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता । ‘भजनाश्रम’ के पास अपना एक आयुर्वेद संस्थान भी है जिसमें करीब चालीस दवाएं बनती हैं । दवाओं के कूटने, शीशियों में भरने और पैकिंग करने आदि का काम इन्हीं बाइयों से लिया जाता है ।

समूचे देश के दानदाता भजनाश्रम की बाइयों के लिए हजारों रुपए के हिसाब से भेज रहे हैं । इसके अलावा सावन और फागुन के महीने में मारवाड़ी लोग वृंदावन आते हैं तो हजारों की रकम आश्रम को दान कर जाते हैं ा कंबल, रजाई आदि बांटने के लिए दे जाते हैं । बीस साल से वृंदावन में रह रही दो बाइयों ने बताया कि उन्हें आज तक कोई रजाई या कंबल नहीं दिया गया । वृंदावन में स्थित फोगला आश्रम भी भजनाश्रम की एक शाखा है । साल में चार महीने इस आश्रम में रोजाना चलने वाली रासलीला में हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं । आयोजक घड़े लेकर रासलीला के खत्म होने पर चढ़ावे के लिए जनता के बीच निकलते हैं । कहते हैं करीब तीस-चालीस हजार की रकम रोजाना इकट्ठी हो जाती है । फोगला आश्रम के अतिरिक्त भजनाश्रम की दो बड़ी-बड़ी इमारतें और भी हैं-- खेतावत भवन और वैश्य भवन । इन भवनों में बने आलीशान कमरे दानदाता सेठों के आने पर ही खुलते हैं लेकिन प्रचारित यह किया जाता है कि यह भवन बाइयों के लिए बनाए गए हैं ।

एक धर्मिक नगर में लोग बाइयों के हक में आवाज उठाने को तैयार नहीं है । महानगरों में नारी-शोषण के खिलाफ प्रदर्शन होना एक आम बात है । लेकिन वृंदावन की बाइयों के हक की आवाज उठाने की सुध् किसी को नहीं । वृंदावन की बाइयों की व्यथा पर कथा लिखने वालों की कमी नहीं रही। समय-समय पर देशी-विदेशी कैमरे इन बाइयों के चित्र उतारते रहते हैं । सामाजिक संगठन इनकी दुर्दशापर कभी-कभी चर्चा भी करते देखे गए हैं लेकिन स्वर्ग की आस में नरक जैसा जीवन जीने वाली बेसहारा औरतों को सहारा देने वाला कोई नहीं ।

Wednesday, May 12, 2010

वृन्दावन का प्रेम महाविद्यालय वर्बादी के कगाार पर


अशोक बंसल



मथुरा से 11 कि.मी. दूर वृन्दावन में यमुना किनारे स्थित ‘प्रेम महाविद्यालय’ आज पूरी तरह तहस-नहस है। एक शताब्दी पुराना यह विद्यालय इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। गुलामी के वक्त बिट्रिश हुकूमत के वायसराय लार्ड रीडिंग तक की आँखों की किरकिरी बना ‘प्रेम महाविद्यालय’ की प्रत्येक ईंट आजादी के दीवानों के त्याग तपस्या की मूक गवाह है। साथ ही, यह महाविद्यालय वर्तमान में जिला विद्यालय निरीक्षक तथा चन्द शिक्षकों की अर्थलिप्सा और भ्रष्ट आचारण पर आँसू भी बहा रहा है। विद्यालय में वास्तव में एक भी छात्र दिखाई न देने के बावजूद यहाँ तैनात शिक्षकों को वेतन मिल रहा है।

एक मायने में किसी गौरवशाली संग्रहालय की साख वाले इस विद्यालय की स्थापना २४ मई १९0९ में क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने की थी। मदन मोहन मालवीय ने इस विद्यालय की पहली ईंट रखी। लाखों रूपये की सम्पत्ति को विद्यालय के नाम करने वाले अद्भुत राजा महेन्द्र प्रताप का सोच था कि उनका ‘प्रेम महाविद्यालय’ छात्रों को स्वदेश और समाजसेवा का पाठ पढ़ायेगा। आजादी मिलने तक राजा के सपने सच हुए लेकिन आजादी के बाद प्रतापी राजा को निराशा हाथ लगी।

वृन्दावन के प्रेम महाविद्यालय की कीर्ति सम्पूर्ण देश में फैली। नतीजतन, महामना मदन मोहन मालवीय का पेूम इस विद्यालय से लम्बे समय तक रहा। महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, लाला हंसराज, सुभाष चन्द्र बोस, सी.एफ. एण्डूज, रवीन्द्रनाथ टेगौर, सरोजनी नायडू सरीखे जाने-माने नाम प्रेम महाविद्यालय को देखने वृन्दावन आये और विद्यालय की हस्ताक्षर पंजिका में अपनी-अपनी प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ दर्ज की। १४ अप्रैल १९१५ को महात्मा गाँधी ने अपना पूरा दिन इस विद्यालय में बिताया। इस विद्यालय की लोकप्रियता के किस्सों की फहरिस्त लम्बी है।

हाथरस जिले की मुरसान रियासत के राजा महेन्द्र प्रताप के हृदय में स्वाधीनता का विचार हिलोरें ले रहा था। विद्यालय का काम काज अपने साथियों को सौंप राजा साहब 20 दिसम्बर १९१४ को विदेश चले गये। ३२ वर्ष बाद वे १९४६ में वापस आये। इस दौरान प्रेम महाविद्यालय काँग्रेसियों और क्रान्तिकारियों की शरणस्थली बना। १९२१ के इस विद्यालय के छात्र-शिक्षकों ने कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा लिया। १९२९ में कुछ माह के अन्तराल से गाँधी और नेहरू के वृन्दावन के इस विद्यालय में आने की तारीखें दर्ज हैं। १९२१ में राजा विदेश में रूस, जापान, जर्मनी की विशिष्ठ हस्तियों से मेलजोल बढ़ा देश को स्वाधीन बनाने की योजनाओं में लिप्त थे। रूस में लेनिन ने राजा महेन्द्र प्रताप को मुलाकात का निमन्त्रण दिया ा इधर भारत में वायसराय लार्ड रीडिंग ने राजा और प्रेम महाविद्यालय की सम्पत्ति को जब्त करने की योजना बनायी, लेकिन डॉ. तेज बहादुर सप्रू जो लार्ड रीडिंग की कार्यकारी काँसिल के कानूनी सलाहकार थे, ने प्रेम महाविद्यालय की पैरवी की और इसे बन्द होने से बचाया। १९३२ में एक बार फिर मथुरा के कलेक्टर डब्लू.सी. डायविल ने प्रेम महाविद्यालय को निशाना बनाया। विद्यालय ६ वर्ष तक बन्द रहा लेकिन मथुरा-वृन्दावन में मौजूद राष्ट्रप्रेमियों ने इस विद्यालय को फिर से जीवन्त बनाया। १९३८ में आचार्य नरेन्द्र देव इस विद्यालय की प्रबन्ध समिति के सदस्य बने। नरेन्द्र देव ने शिक्षा को विस्तार देते हुए पॉलीटैक्निक महाविद्यालय की स्थापना की ा मथुरा-वृन्दावन रोड पर स्थित यह महाविद्यालय प्रारम्भ में प्रसिद्ध रहा लेकिन अब इसकी कीर्ति शनै-शनै धूमिल हो गयी है।

१९५७ में दूसरी लोकसभा में राजा महेन्द्र प्रताप मथुरा से सांसद बने। १९७८ में उनका निधन हुआ। तब तक प्रेम महाविद्यालय में पढ़ाई-लिखाई होती रही लेकिन राजा साहब के निधन के बाद विद्यालय को स्थानीय और बाहरी सभी भूल गये। पिछले दिनों वृन्दावन में कुछ इतिहास प्रेमियों ने ‘प्रेम महाविद्यालय पुर्नजन्म उत्सव’ मनाया। राजा साहब के कृतित्व-व्यक्तित्व का स्मरण किया गया लेकिन कागजों पर चलने वाले इस विद्यालय में प्राण फँूकने की कोई गम्भीर योजना न बन सकी।

मथुरा के पुरातत्व व इतिहास प्रेमी हुकुमचन्द्र तिवारी का कहना है कि शिक्षा माफियाओं के फलने-फूलने वाले इस युग में ‘प्रेम महाविद्यालय’ को चलाना नामुमाकिन है लेकिन इस विद्यालय को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर इसे एक आकर्षक संग्रहालय में तब्दील किया जा सकता है।

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विदेशी विश्वविद्यालयों का आगमन


उच्च शिक्षा का विस्तार स्तर की कीमत पर

अशोक बंसल



उच्च शिक्षा के कल्याण के लिये मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा देखे जा रहे सपनों का देश में उच्च पदस्थ बुद्धिजीवी स्वागत कर रहे हैं। ‘विदेशी विश्वविद्यालय बिल’ को मंत्रिमंडल की मंजूरी मिलने के बाद माना जा रहा है कि इस लुभावने बिल को संसद में कम्यूनिस्टों के विरोध के बाबजूद मंजूरी मिल जाएगी। देश में विदेशी शिक्षा संस्थानों को न्यौत कर उच्च शिक्षा को अन्तरराट्रीय स्तर का बना देने का विचार चार वर्ष पुराना हैं लेकिन तब कम्यूनिस्टों के प्रबल विरोध के बाद बात आगे नहीं बढ़ सकी थी। गत वर्ष बिल के पुराने स्वरूप में कुछ जोड़-बाकी कर इसे नए सिरे से तैेेेयार किया गया था ा सत्ता के शीर्श पर बैठे लोग शिक्षा क्षेत्र के विदेशी मेहमानों के स्वागत के लिए पलक पाँवडे बिछाने को तैयार हैं।

विदेशी विश्वविद्यालय बिल के लाभ गिनाते कपिल सिब्बल का कहना है कि अब बढ़िया शिक्षा के लिए स्वदेशी छात्रों (एक वर्ष में करीब एक लाख साठ हजार छात्र विदेश जाते हैं) को यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया नहीं जाना पड़ेगा। इससे विदेशी मुद्रा बचेगी। देश में सरकारी और निजी क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इससे शिक्षा का स्तर भी बेहतर होगा यह बिल संचार क्षेत्र में आई क्रान्ति से बड़ी क्रांति साबित होगा। बिल के प्रशंसकों का कहना है कि वर्तमान में 18-24 वर्ष के नौजवानों का सिर्फ 9 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा केी ओर अग्रसर हो पाता है। विदेशी विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद बढ़ती जनसंख्या को उच्चशिक्षा के रास्ते सुलभ होंगे, शिक्षकों को रोजगार मिलेगा, अन्य देशों के छात्र हमारे यहाँ पढ़ेंगे। इससे विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ेगा। यानि बिल एक और लाभ अनेक।

सच्चाई यह है कि बढ़ती जनसंख्या को देख विभिन्न क्षेत्र के व्यापारियों ने तकनीकी और प्रबन्धन कालेज दुतगति से खोले हैं। विगत एक दशक में अकेले उत्तर प्रदेश में 500 से ज्यादा तकनीकी और प्रबन्धन कालेज खुले हैं।

होटलनुमा इमारतों में चल रहे इन संस्थानों की शिक्षा के शोचनीय स्तर पर विद्वानों की दो राय नहीं हैं। इन संस्थानों से डिग्री प्राप्त कर निकले हजारों इंजीनियर और एम.बी.ए बेरोजगारों की कतार में जा बैठे हैं।

उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की लालसा वाले मंत्री कपिल सिब्बल ने अपने बिल में विदेशी विश्वविद्यालयों पर इस आश्य से अंकुश लगाने के इन्तजाम किए हैं ताकि शिक्षा के स्तर में गिरावट न आए। ऐसे अनेक अंकुष मौजूदा षिक्षा के स्तर को गिरने से रोकने के लिए पहले से बने हैं लेकिन आई आई टी और आई आई एम संस्थानों को छोड़कर अधिकांष षिक्षा संस्थान बिना महाबत के हाथी जैसे अपने मद में मस्त हैं ा

यह कहना गलत न होगा कि बीस वर्षो में उच्च शिक्षा का अच्छा खासा विस्तार हुआ है।स्वतन्त्रता के समय भारत में मात्र 20 विश्वविद्यालय और 500 महाविद्यालय थे। आज तकनीकी व प्रबधन संस्थानों की संख्या हजारों में है। इन संस्थानों को संचालित करने और इनके स्तर को बरकरार रखने के लिए सरकार के पास 13 नियामक संस्थाऐं हैं। क्या ये संस्थायें अपना दायित्व भलीभाँति निभा पा रही हैं? असीमित अधिकार वाली ये संस्थायें भ्रष्टाचार की चपेट में हैं। यू0 जी0 सी0 और अखिल भारतीय तकनीकी संस्थान, जैसी संस्थायें शिक्षा के स्तर पर लगाम न लगा शिक्षा व्यापारियों से मधुर रिश्ते कायम करने में तल्लीन हैं। यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा गठित ज्ञान आयोग ने उच्च शिक्षा क्षेत्र के नियमन के लिए एक स्वतन्त्र नियामक आयोग की स्थापना का सुझाव दिया है। शिक्षा को सही रास्ते पर लाने में नाकामयाब रही ये नियामक संस्थाऐं अपने देश की विदेशी शिक्षा पर कैसे लगाम कस सकेंगी, यह प्रश्न भी गौरतलब है। विश्वविद्यालयों में कुलपति जैसे गरिमामय और अकादमिक उत्कृष्टता वाले पद पर राजनेताओं के हस्तक्षेप ने शिक्षा के स्तर को चौपट किया है। विश्वविद्यालय और महाविद्यालय ज्ञान के केंद्र न होकर राजनीति के आखाड़ों में तबदील हो गये हैं।

आश्चर्य की बात यह है कि सरकार के पास सब कुछ होते हुए भी उच्च शिक्षा के इन पुराने संस्थानों में सुधार क्यों नहीं हो पा रहा। ऐसे में विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश में कुछ चमत्कार करेंगे, यह सोचना बेमानी होगा।

कपिल सिब्बल ने कहा है विदेश के अन्तरराष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक संस्थान को ही यहाँ विश्वविद्यालय खोलने की इजाजद दी जाएगी। प्रस्तावित विल यदि कानूून में तबदील होता है तो यह कल्पना करना भी बेमानी है कि लन्दन के आक्सफोर्ड और भारत में खोले गए आक्सफोर्ड की षिक्षा एक जैसी होगी।

विदेशी शिक्षा संस्थान पिछले अनेक वर्षो से भारत में डेरा डालने के सपने बुन रहे हैं ताकि अधिकाधिक धनोपार्जन किया जा सके। ‘न्यूयार्क यूनिवर्सिटी पोली’ के प्रेसीडेन्ट जेरी हल्टिन ने कहा है कि अबूधवी में हमारे विश्वविद्यालय की संरचना सर्वोच्च है। उनकी नजर अब भारत पर है।इस विश्वविद्यालय के साथ अमेरिका के 800 कालेज संबद्ध हैं। जेरी का कहना है कि उन्हें भारत में अपार संभावनायें हैं। जाहिर है ‘अपार संभावनाओं’ से जेरी हल्टिन का तात्पर्य शिक्षा के व्यवसाय से है न कि ज्ञान रूपी किरणों से देश को अलोकित करने से।

‘विदेशी विश्वाविद्यालय बिल’ को संसद के पटल पर रखने से पूर्व हमारी कोशिश मौजूदा विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को चुस्त-दुरूस्त करने की होनी चाहिये। शिक्षा व्यापारियों के मुनाफे पर अंकुश लगा कर, विश्वविद्यलयों को राजनीति के शिकंजे से मुक्त कर अकादमिक हस्तियों की पहचान कर तथा शिक्षा की नियामक संस्थाओं में आसन जमाए दलालों को बेदखल कर ही उच्च शिक्षा के स्तर को गुणवत्तापूर्ण बनाया जा सकता है। अन्यथा विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश में शिक्षा की मँहगी दुकानें ही साबित होंगी।



Monday, May 10, 2010


उपजाऊ जमीन के काँटे

 अशोक बंसल



1840 में आस्टेªलिया की धरती ने सोना उलगना शुरू किया। हुकूमत करने वाले गोरे ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ की स्टाइल में जगह-जगह ‘खुल जा सिमसिम’ कहते घूम रहे थे। दुनिया भर में, आस्टेªलिया में सोना निकलने की खबरें पहुँची। अनेक देशों के मजदूर हाथों में कुदाल और फावड़े ले आस्टेªलिया जा पहुँचे। कई स्थानों पर मौजूद पहाड़ों को खोद खोदकर मजदूर सोना निकालते। गोरी सरकार इसे खरीदकर और फिर जहाज में लादकर लन्दन पहुँचा देती। यह क्रम 1900 तक चला।

‘गोल्ड रश’ नाम से मशहूर इस दौड़ में चीनियों ने जबर्दस्त बाजी मारी। सन् 1850 में मेलबर्न से सौ कि0मी0 दूर बेलारंट की पहाड़ी से सोना खोदकर निकालने वालों में चीनियों की संख्या बीस हजार थी। अपने काम में माहिर और मेहनती चीनियों से गोरे लोग दूरी बनाकर ही नहीं रखते थे बल्कि ब्रिटिश सैनिकों की मदद से वे चीनियों के टेण्टों में घुसकर लूटपाट और मारपीट भी करते थे। चीनी डरे नहीं, डटे रहे।

आस्टेªलिया में आज चीनी लोगों का अपना एक अलग संसार है। आर्थिक जगत में चमकते चीनी हर पर्यटक को चहकते-दमकते दिखाई देते हैं। राजनीति में भी वे बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। 150 वर्ष पूर्व गोरों द्वारा चीनी समुदाय पर किए गए हमले अब इतिहास की विषयवस्तु है।

दो वर्ष पूर्व मैं मेलवर्न की सड़कों पर चौकड़ी भरते हुए आस्ट्रेलिया के इतिहास को जानने के लिए संग्रहालय दर संग्रहालय भटकता रहता था। यहीं मैंने जाना कि इस अद्भुत धरती के मूल निवासियों (एब्रोजनीज) को अंग्रेजो ने चुन-चुन कर कैसे मारा और उनकी लाखों की संख्या हजारो में कर दी।

आज मेलबर्न की इन्ही सड़कों पर भारतीयों पर होने वाले हमले, लूटपाट और हत्या ने मुझे जबर्दस्त धक्का पहुँचाया है। आस्टेªलिया की सरकार ने संग्राहलयों में गोरों द्वारा मूल निवासियों पर किए गए भीषण अत्याचारों को बड़ी ईमानदारी से दर्शाया है। इस ईमानदारी को देख मैं आस्ट्रेलिया की सरकार के प्रति श्रद्धानत था लेकिन आज भारतीय छात्रों पर होने वाले गोरे नौजवानों के नस्ली हमलों को ‘लूटपाट की साधारण घटना’ कहकर मामले की गंभीरता को कम करके आंकना आस्टेªलियाई मंत्रियों के लिए कितना उचित है?

63 साल की आजादी में हमारे देश के राजनैतिक कुप्रबन्धन ने नौजवानों को भटकाव के रास्ते पर ला पटका है। सिर्फ 20 फीसदी लोगों के लिए ‘देश सोने की चिड़िया’ है, बाकी के लिए जीने के लिए जुगाड़ करना ही जीवन है। ऐसे में नौजवानों में पलायन की प्रवृत्ति बढ़ी है।

अन्य देशों के मुकाबले आस्ट्रेलिया बसने के लिए उपयुक्त जगह है। खान-पान, रहन-सहन, वेतन आदि सब कुछ बढ़िया। 27 लाख आबादी वाले अकेले मेलबर्न में 70 हजार भारतीय हैं। आस्ट्रेलियाई सरकार को मानव संसाधन की बहुत जरूरत है। अतः मेलबर्न की आबादी 2030 तक 50 लाख करने का लक्ष्य रखा है। पर्थ, कैनबरा, एडिलेट, सिडनी, मेलबर्न कहीं भी बसो, स्थायी निवासी बनने पर जमीन खरीदों तो रियायत, बच्चे पैदा करने पर भी पुरूस्कार।

मैंने मेलबर्न में भारतीय लोगों को ‘बल्ले-बल्ले’ करते देखा। ‘क्या से क्या हो गए’ गाते देखा। कुल मिलाकर स्थायी वीजा लेकर आस्टेªलिया में बसने वाले भारतीय संपन्नता की मंजिल तय कर रहे हैं, साथ ही पराए देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं। अपनों से हजारों मील दूर रहकर आस्टेªलिया के विकास में सहयोग करने वाले भारतीयों पर होने वाले लगातार हमलों को आस्टेªलिया की सरकार फिर गंभीरता से क्यों नहीं ले रही, यह सवाल मेरे मानस को उद्वेलित करता है। एक भारतीय कर्टूनिस्ट ने अपने एक कार्टून में विक्टोरिया पुलिस को नस्लवादी संगठन ‘कू क्लाक्स क्लान’ का सदस्य दर्शाकर पुलिस के निकम्मेपन को रेखांकित करने की कोशिश की तो आस्ट्रेलिया की सरकार ने भारतीय मीड़िया को संयम बरतने का पाठ पढ़ा दिया। जब हम एक दूसरे के पूरक हैं तो सच को स्वीकार करने में देरी क्यो?

आस्टेªलिया के दो-दो माह के दो प्रवास में मैंने अनुभव किया है कि रोटी रोजी की जुगाड़ में गए भारतीयों के पैर आस्टेªेलिया की धरती पर अब अंगद के पैर बन चुके हैं। ऐसे में बेगुनाह छात्रों पर गोरों के हमलों से दहशत पैदा करने की कोशिश नाकाम सिद्ध होगी, बिलकुल वैसे जैसे 150 वर्ष पूर्व सोने की तलाश में आए चीनियों पर किए गए सुनियोजित हमलों के बाद चीनी भागे नहीं बल्कि ज्यादा मजबूत होकर वहीं बस गए।





प्रेषक: डॉ. अशोक बंसल 17, बल्देवपुरी एक्सटेंशन, मथुरा-281004, मो0 09837319969

लाल ताजमहल

यदि आपसे कहा जाए कि ताजनगरी आगरा में एक ताजमहल और है,यह दूधिया संगमरमर के बजाय लाल पत्थराूें से बना है तो आप चौंकेंगे अवश्य । आप ही नहीं आगरा के वाशिन्दे भी इसे ‘मूर्खतापूर्ण वक्तव्य’ कहने से नहीं चूकेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि आगरा में एक लाल ताजमहल भी है, पुरातत्व विभाग के कब्जे में होने के बावजूद एकदम अप्रचारित और उपेक्षित।



आगरा स्थित ‘भगवान टॉकीज’ के पास विशाल परकोटे में सिमटा कब्रिस्तान उत्तरी भारत का सबसे पुराना रोमन कैथेलिक कब्रिस्तान कहा जाता है। निश्चय ही, आगरा की अन्य इमारतों की तरह यह एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह बात अलग है कि पुरातत्व विभाग की उपेक्षा और अदूरदर्शिता के कारण लाखों की संख्या में आगरा आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों की नजर से एकदम अछूता है।

सैकड़ों छोटी-बड़ी, टूटी-फूटी, उजाड़ और कई भव्य और आकर्षक कब्रों की रखवाली के बूढा माली सिताब खॉ तैनात है। कब्रिस्तान के मुख्य द्वार पर बैठे सिताब खॉ का दिन बोरियत भरा बीतता है। इसका कारण है कि यहॉ आने वाले पर्यटकों की संख्या न के बराबर है। पुरातत्व विभाग के अफसर भी यहॉ यदा-कदा आते हैं, मानो इस कब्रिस्तान में भूतों का डेरा हो।

कब्रिस्तान के ठीक बीच में थित है लाल ताजमहल । शाहजहॉ के ताजमहल के मुकाबले भव्य तो नहीं पर लाल पत्थरों के इस ताजमहल को देखने पर कतई महसूस नहीं होता कि जिस प्रेमी ने इसेे प्रेमिका की याद में खड़ा किया है, उसका प्यार बादशाह शाहजहॉ और मुमताज के प्यार से किसी मायने में कम न था। चौकीदार सिताब खॉ को इस कब्रिस्तान में रहते-रहते कब्रों में दफन लोगों से लगाव पैदा हो गया था । वह यहॉ आने वाले पर्यटकों को कमरों के बीचों-बीच बनी खूबसूरत कब्र पर खुदी इबारत को पढ़ने का न्यौता अवश्य देता था ।

‘‘जॉन विलियम हैसिंग की मृत्यु 21 जुलाई 1803 को हुई। उन्होंने 60 साल 11 माह 5 दिन की जिन्दगी पाई। हैंसिग 1762 में भारत आए और दक्षिण निजाम सेवा में रहे। 1784 में तत्कालीन महाराज माधवराव सिंधिया की सेवा में रहे। कई युद्धों में हिस्सा लिया। 1787 में आगरा के पास भौंदा गॉंव में बहादुरी से लड़े और नबाब इस्माइल के विरुद्ध हुए युद्ध में बुरी तरह घायल हुए। 1793 में माधवराय सिंधिया की मृत्यु के बाद दौतराव की सेवा में रहे। 1798 में हैंसिग ने कर्नल का पद संभाला और अन्तिम श्वॉस तक आगरा किला और आगरा शहर की कमांड संभाले रखी।’’

काले चमकीले पत्थर पर इबारत खोदने वाले फिलिप हंट, कलकत्ता का नाम है। कहते हैं कि हैसिंग की पत्नी एलिस ने इस ताजमहल को एक लाख रुपया खर्च कर बनवाया था। सिताब खॉ कमरे में मौजूद नीरवता को तोड़ते कहते थे- ‘‘साहब ! यह तो नकली कब्र है, असली तो नीचे है।’’ सीढ़ियॉ उतरते हुए हम तहखानेनुमा कमरे में पहुॅचे। चारों ओर गन्दगी और अन्धकार का साम्राज्य था। बदबू और चमकादड़ की डरावनी आवाज के आगे असली कब्र के सामने ज्यादा ठहरने की हिम्मत नहीं हुईं। असली कब्र पर भी कुछ खुदा था लेकिन पुरातत्व विभाग की ‘मेहरबानी’ इतिहास के पन्नों को गहराई से पढ़ने की इजाजत नहीं देती।

अपने सिरों पर झड़ी गन्दगी को पोंछते हुए गहरे निःश्वास को छोड़ते हुए हम बाहर आए। लाल ताजमहल के पास खड़े दूसरी कब्रों के बीच दबे ढके इतिहास के पन्नों को पढ़ने की इच्छा हुई। साथी कैलाश वर्मा ने सिताब खॉ से पूछा- ‘इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र कौन सी है?’ सिताब खॉ चौकीदार था पुरातत्व विभाग का लेकिन हमारा तो गाइड था। हमारा ही नहीं, भूले-भटके आ टपकने वाले हर जिज्ञासु का।

17वीं-18वीं शताब्दी में यह कब्रिस्तान ईसाईयों का तीर्थ माना जाता था। उस जमाने में साधन-संपन्न अंग्रेज यदि दूरदराज इलाकों में प्राण छोड़ते थे, तो उनके रिश्तेदार और मित्र मृतक के शरीर को सैंकड़ो मील लाकर आगरा के इसी कब्रिस्तान में दफनाने में सुख और संतोष का अनुभव करते थे। तभी तो मिल्डन हॉल मरे अजमेर में और आराम फरमा रहे हैं आगरा के ऐतिहासिक कब्रिस्तान में।

मिल्डन हॉल की कब्र इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र मानी जाती है। कब्र पर लगे पत्थर पर खुदा है-‘जॉन मिल्डन हॉल लन्दन से चलकर 1599 में पर्शिया होते हुए हिन्दुस्तान आए। 1605 में लाहौर में बीमार पड़े और अजमेर में दम तोड़ा। वहॉ उनके दोस्त केरिज मर्चेन्ट ने उन्हें आगरा लाकर दफना दिया।’ कहते हैं मिल्डन हॉल एक यात्री की हैसियत से हिन्दुस्तान घुमा लेकिन अफसोस यह है कि उसकी रोमांचकारी यात्राओं का कोई विवरण उपलब्घ नहीं। मिल्डन हॉल ने बादशाह अकबर को अपना परिचय रानी एलिजाबेथ के प्रतिनिधि के रुप में दिया था।

लाल ताजमहल के र्दाइं तरफ पीछे की ओर पिरामिड की शक्ल में बनी कब्र इतिहास का एक और पृष्ठ खोलती है। यह जनरल पैरौ के चौथे बेटे, जिसकी मृत्यु 1793 में हुई, की कब्र है। जनरल पैरो महाराजा सिंधिया की फौज के महत्वपूर्ण कंमाडर थे। सिािताब खॉ ने बताया कि जनरल पैरो के वंशज दो साल पहले इंग्लैण्ड से यहॉ आए थे। कब्र पर जमीं काई को देखकर उन्होंने ऑसू बहाए थे। अपने पूर्वजों की निशानी को सही-सलामत बने रहने की इच्छा प्रकट की। इसके लिए अच्छी-खासी रकम भी दे गए थे, लेकिन कब्र पर जमीं मोटी परत किसी ने हटाई।

ताज का निर्माण 1631 से 1653 माना गया है। यानि कि इन बाईस वर्षों में अनेक कलाशिल्पियों और मजदूरों ने शाहजहॉ के सपनों को साकार किया था। इन्हीं शिल्पियों में एक था जरोमी बरोनियो। कहते हैं जरोमी की कब्र भी आगरा के इसी कब्रिस्तान में मौजूद है। सन् 1945 में आगरा के फादर सुपारियर रेगलर ने एक कब्र से कुछ काई हटाई तो एक पत्थर पर ‘जरोमी बरोनियो’ खुदा मिला।

लेखक ने अपने साथी डा0 मनोरंजन शर्मा के साथ कब्रों पर खुदी इबारत के बीच अमर शिल्पी का नाम खोजने की भरसक कोशिश की लेकिन न जाने कहॉ गुम हो गया जरोमी बरानियो। बात यह भी ठाक है कि ‘नींव के पत्थरों’ को गुमनामी के अॅंधेरे में विलीन होने में ही आनन्द आता है।

पुरातत्व विभाग का यह दायित्व है कि संगमरमरी ताजमहल के अमर शिल्पी जरोमी बरोनियो की कब्र की पहचान तय करे ताकि मनमोहक ताजमहल पर लट्टू होने वाले देशी-विदेशी पर्यटक जरोमी बरोनियो को भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर सकें।



Sunday, March 28, 2010

अभिनन्दन बनाम श्राध्द






चचा सुखराम के दिमाग में एक गजब का विचार कौंधा है। वह अपना अभिनन्दन ग्रन्थ खुद ही तैयार करने में जुट गए हैं। ग्रन्थ की मोटी-मोटी बातें उन्होंने चाची के साथ बथुआ का परांठा खाते-खाते तैयार कर ली हैं। ग्रन्थ 'कलरफुल' होगा, बढ़िया कागज और पृष्ठों की संख्या भी भरपेट। तीन खण्डों में बटे 'सुखराम अभिनन्दन ग्रन्थ' में कृतित्व और ‘श्‍हर के इतिहास का विस्तृत रोजनामचा होगा।

चचा पैंसठ के लपेटे में हैं। जिन्दगी के लम्बे सफर में चचा का सामाजिक योगदान और बहुआयामी व्यक्तित्व किसी से कम नहीं है।

खबरची पुराने हैं वे। मुहल्ले में चाकू चला नहीं अखबार वालों को खबर देने में चचा ने कभी देर नहीं की। धीरे-धीरे अखबार वालों के खास बनते ही चचा मौखिक सूचना देने के स्थान पर खुद ही लिखने लगे और पत्रकारिता के पायदान पर पैर जमा दिए। शहर की सभा, सोसाइटी, कवि गोष्ठी में अग्रपंक्ति में चचा सदैव बैठते रहे हैं।

26 जनवरी की बात है। बच्चों के स्कूल में मुख्य अतिथि नहीं आए। आकाश में बंधा तिरंगा फहराने को मचल रहा था। धोती कुर्ता जाकेट में अग्रपंक्ति में डटे थे सुखराम।

प्रिंसीपल को इससे बढ़िया दूसरा स्वतंत्रता सैनानी दिखाई नहीं दिया। माइक पर नाम पुकारते ही चचा उठे और झंडे की डोरी खींच दी। सलामी देने में चचा को असीम आनन्द की अनुभूति हुई।

चचा की कल्पना की गति जेट विमान से तेज है। झंडे की डोरी खींचते ही चचा स्वतंत्रता सैनानी बन गए। उन्हें नहीं मालूम है कि उनकी तीन पीढ़ियों में कोई जेल गया हो या किसी ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ नारेबाजी की हो। लेकिन कल्पना के रथ बैठे वे सन् 42 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में शरीक हो गए। थाने का घिराव किया। पुलिस ने डण्डे बरसाए। चचा के दाऐं टखने पर चोट का निशान है। चचा को याद है कि यह निशन बचपन में साइकिल से गिरने का है। चचा को अब यह निशान सन् 1942 का बताना पड़ रहा है। स्वतंत्रता सैनानी जो हैं। चचा ने योजना बना ली है कि अभिनन्दन ग्रन्थ के व्यक्तित्व वाले खण्ड में यह सूचनाऐं पाठकों का ज्ञानवर्ध्दन करेंगी।

चचा टेंशन में हैं आजकल। हमने दबी जुबान से पूछा 'चचा! आप 'सुखराम अभिनन्दन ग्रन्थ' की तैयारी कैसे कर रहे हैं ?' चचा बोले 'भतीजे ! तुझसे कुछ नहीं छुपांऊंॅगा। कुछ लेख तो खुद ही लिख लिए हैं। कुछ मित्रों से लिखवा रहा हॅू। लोगों को मेरे बारे में याद नहीं रहा सो विस्तृत बायोडाटा छपवा लिया है। एक लेख तुमको लिखना है। तुम मेरे सामाजिक व मानवीय गुणों को रेखांकित करो। जैसे-सड़क पर पड़े केले के छिलकों को फेंकने और किसी अन्धे की बांह पकड़ सड़क पार कराने की मेरी पुरानी आदत। मेरे विनम्र स्वर और गांधी भक्त होने को हाईलाइट करो। मेरे संपर्कों में गांधी, नेहरू को छोड़कर दूसरे नेताओं से मेरे रिस्तों का हवाला दे सकते हो। तुम लिख दो .......... मैं एडिट कर लूॅगा।'



चचा ने बकायदा 'अभिनन्दन ग्रन्थ समिति' बनाई है। लेटर हैड छपवाए हैं। चचा चन्दा करने में माहिर हैं। सो उगाही भी चल रही है। चचा के कदमों में गजब की तेजी है।

कुंऐ में पैर लटकाए बैठे चचा सुखराम और अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित‍ करने के विराट सपने के लिए की जाने वाली उनकी अटूट मेहनत को देख मैं हैरत में हॅू। अचानक पूछ बैठा, 'इतना श्रम क्यों - किसलिए ?' चचा गहरी निश्वा स छोड़ते दयनीय स्वरों में बोले, 'पिछले दिनों सुनामी और फिर कशमीर में हुई बर्फबारी ने कलेजे में धुक-धुक कर दी है। यकीन होने लगा है कि पृथ्वी पर बिगड़ते संतुलन से गुस्साई प्रकृति काली माँ बन गई है। क्या मालूम कल कौन सा घर दब जाए, किसकी इहलीला समाप्त हो जाए। ऐसे में बेहतर है अपना श्राध्द खुद कर जाओ। भतीजे ! अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना इसी श्राध्द की एक कड़ी है।' मैं निषब्दं चचा को टुकुर-टुकुर निहार रहा हूँ।





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Friday, March 19, 2010

एक विधायक की आत्मकथा






यह दुनिया बडी निर्मम है। इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई और किसी ने 'उफ्' तक नहीं की। देश्‍ के किसी कोने से एक भी संवेदना संदेष भेजे जाने का कोई समाचार मीडिया वालों ने इतनी खबर दी कि राज्यपाल लोटा सिंह ने लुढ़का दी। घटना विहार में घटी लेकिन वैचारिक लुढ़का-पुढ़की यू.पी. के विधायक रामलाल के मन में हो रही है।

सब तरफ भाई-भाई का नारा लग रहा है। हिन्दी-चीनी भाई-भाई, अफसर-अफसर भाई-भाई। व्यापारी एकता जिन्दाबाद। षिक्षक अपनी मागें मनवाने के लिए एक दूसरे का हाथ थामे खड़े रहते हैं फिर विधायक-विधायक भाई-भाई क्यों नहीं हो सकते हैं। वे चाहे किसी प्रान्त के हों या किसी दल की टिकट पर जीते हों। कहलाते तो विधायक ही हैं। वेतन, भत्ता, सुविधा, खाने कमाने के अवसर तो एक जैसे हैं। टनाटन सफेदी जैसी एक

जीवन षैली है, एक सोच है, एक मकसद है और वह है 'स्व-सेवा'। राष्ट्र ही विधायक है, विधायक ही राष्ट्र है। बेचारे षपथ भी न ले पाए थे कि लुढ़का दी। चुनाव के तत्काल बाद विधानसभा भंग हो जाती तो भी ठीक था। हरी झण्डी दिखाने में दिल्ली ने राज्यपाल को तीन माह लगा दिए। दो-तीन महीने में जो मीठे सपने देखे वह तो न देखते। विधायक रामलाल भावनाओं में बहे जा रहे हैं। उनका विचार मंथन जैसे-जैसे गंभीर होता है उनके सीने की बांई तरफ टीसें बढ़ती जा रही हैं।

बड़ी मुष्किल, थुक्का फजीहती और मारा-मारी के बाद टिकिट की जुगत लगाओ और फिर ऐरेगैरे, नथ्थू गैरों के सामने हाथ जोड़ वोटों की भीख मांगो। वोट पड़ने से पहले की रात सारे ऐब करो, तब जाकर चुनाव जीतो। गले में माला पड़ गईं, विजय पर्व मन गया। गहरी नींद से जगे तो मालूम पड़ा कि लोटा सिंह ने बड़ी निर्ममता से लुढ़का दी। भगवान ऐसा बुरा हाल किसी विधायक का न करे। विधायक बने भी और न भी।

कहावत है कि पका आम ही धरती पर गिरता है लेकिन बिहार में विधानसभा चुनावों में जीते प्रतिनिधि बिना भाव, वेवक्त और बिना पके ही धड़ाम से टपक पड़े। पहली बार विधायक रामलाल ने पके आम वाली कहावत को चरितार्थ नहीं चकनाचूर होते देखा।

धरती बिहार की हिली है लेकिन हिचकोले यू.पी के विधायक रामलाल को लगे हैं। संवेदनश्‍ील हैं बेचारे। दहशत सी पैदा हो गई है कलेजे में। सत्ता में हो या विरोध में, मुख्यमंत्री अच्छा करे या बुरा, सरकार 5 वर्ष चलनी चाहिए। अब पार्टियों में समझदारी विकसित हो रही है। सभी ने आपस में गुप्त समझौता कर लिया है। -'सरकार गिराने की धमकी देते रहो, गिराओ मत।'

विधायक रामलाल के मन में संभावित होनी अनहोनी का चित्र घूम ही रहा था कि बचपन के मित्र ने उनके कमरे में प्रवेश किया। दु:खी आत्मा रामलाल का लटका मुंह देख मित्र बोले, 'रामलाल जी ! किशन चंदर की पुस्तक 'एक गधे की आत्मकथा' आपने पढ़ी है क्या ! यदि नहीं पढ़ी तो पढ़ लो। इसी शैली में एक विधायक की आत्मकथा लिख डालो। हम मदद करेंगे आपकी। पुस्तक में ईमानदारी से विधायकों की किस्में, उनकी कार्यश्‍ैली, जीवनषैली, उनके अनुभव आदि का विवरण लिख देना। पुस्तक 'बैस्ट सेलर' बनेगी।

विधायक रामलाल को मित्र का सुझाव पसन्द आया। वह पुस्तक का मसौदा तैयार करने में जुट गए हैं। यदि बिहार की तरह राज्यपाल यू.पी. में भी लुढ़का दें तो कोई चिन्ता नहीं। एक लेखक के रूप में रामलाल की प्रतिष्ठा तो बनी रहेगी।



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Thursday, March 18, 2010

बूढों की बैठक






देश के सीनियर सिटीजन का दर्द मुझे भी सालता है। सरकार एवं अनेक स्वयंसेवी संस्थाएे बूढ़ों की हिफाजत के लिए विचार गोष्ठियां आयोजित कर रही हैं। अनेक समाजसेवी बूढ़ों की सेवा के नाम पर गेस्ट हाउस खोलकर धनोपार्जन कर रहे हैं। ये समाजसेवी अपने गेस्ट हाउस को 'ओल्ड एज होम' का नाम दे गणतन्त्र दिवस पर पद्मश्री जैसे सम्मान पाने की जुगत में हैं।

पुराने जमाने के ऋिषियों-मुनियों ने इंसान की 100 वर्ष की उम्र मान इसे चार भागों में बांटकर जीने की कला का संदेश दिया था। हमारी सरकार ने इसे दो भागों में बांट दिया है। साठ से पहले और साठ के बाद। सरकारी नीतियों के षिकार बने इन बूढ़ों को अपना रिटायरमेन्ट दूध में गिरी मक्खी को निकाल देना जैसा लगता है। जवानी में ये बूढ़े सोचते थे कि साठ साल के होने पर शायद कोई स्पेशल कमजोरी आती होगी, तभी सरकार रिटायर करती है। लेकिन साठ साल के अन्दर बूढ़े अपने षरीर के अन्दर के रसायन पूर्ववत काम करते देखते हैं। उन्हें सरकार की इस नीति पर कभी क्रोध आता है तो कभी हैरत होती है। उन्हें लगता है कि उन्हें फिजूल में रिटायर कर दिया गया। बस इसी विचार के बाद बूढ़ों और जवानों में जबरदस्त खाई खुद जाती है।

पिछले दिनों मेरी गली के चार बूढ़ों ने अपात बैठक बुलाकर तय किया कि सरकार और नौजवानों से रोने-धोने, गिड़गिड़ाने आदि से न तो कोई सुविधा मिलेगी और न ही बाकी दिन कटेंगे। इस पहाड़ जैसी जिन्दगी को अपने तरीके से काटना होगा। चारों बूढ़े इस आइडिया पर एक मत हुए कि शाम के वक्त सभी एक साथ घर के आगे सड़क पर बैठेंगे। तीन-चार घण्टे मौज-मस्ती में गुजरेंगे। बीच-बीच में चाय-चुल्लड़ होगी। आदर्श,नैतिकता जैसे उबाऊ विषयों पर आपस में बातचीत नहीं होगी पर यदि कोई राहगीर भूले भटके अपने पास कुछ पल को ठहर जाऐ तो आदर्ष, नैतिकता, महाभारत, रामायण, वर्तमान समय में मूल्यों का अवमूल्यन आदि विषयों पर ही अपनी बातचीत केन्द्रित की जाऐगी। चारों बूढ़े बैठक में लिए फैसलों पर बेहद मगन है।

तिवारी जी चारों बूढ़ों में सीनियरमोस्ट हैं। उनके घर के बाहर लगे गुलमोहर के वृक्ष के पास शाम होते ही चारों बूढ़े आ धमकते हैं।

आज पहली बैठक थी। बैठक के सामने सड़क के दूसरी ओर रोजमर्रा के सामान की किराने की दुकान है। कालोनी वालों को इस दुकान से बहुत सुविधा है। महिलाऐं अपनी 'कम्फर्टेबिल ड्रेस' में हल्दी, नमक, धनियाँ, बिस्किट, ब्रेड आदि खरीदने आ जाती हैं। बूढ़ों को यह दृश्ये बहुत भाता है।

किसी महिला को सामान खरीदते देख बूढ़े अपना समान्य ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। किसकी बहू है, किस शहर की है, कितने बच्चे हैं आदि की जानकारी आपस में बाट लेते हैं। त्यागी जी के बेटे की बहू है, चार साल षादी को हो गए पर बाल-गोपाल कोई नहीं जैसी आपसी जानकारी पर बूढ़े हैरत में पड़ जाते हैं। वे कोई ऊॅंच नीच होने की श्ंाका जाहिर करते हैं। एक बूढ़ा इस चर्चा को विराम देने की नीयत से कहता है कि 'पत्नी से पता करूॅंगा'। इसी तरह अनेक प्र' बैठक में अनुत्तरित रह जाते हैं। वे अगले दिन सुलझा लिए जाते हैं।

कभी-कभी ये बूढ़े सामान लेकर सामने से गुजरती महिला से घर-गृहस्थी से जुडे सवालों के बहाने बतिया भी लेते हैं। बेहद सम्मान और विनम्रता से पेश्‍ आती ये महिला इन सीनियर सिटीजनों के रोम-रोम को कुछ क्षंण के लिए पुलकित कर देती हैं।

कहते हैं कि हमारी खुश्‍ी हमारे कामों को गति देती है। यही वजह है कि बूढ़ों की राह गुजरती महिलाओं से बतियाबन कर खीसें निपोरने की आदत पड़ गई है। बूढ़ों के दाँतों और घुटनों के दर्द मानो उडनछू हो गए हैं। कब्ज भी जाती रही है। लेकिन इन बूढ़ों को मोहल्ले की महिलाओं के कष्ट का तनिक भी अाभास नहीं। 'कम्फर्टेबिल ड्रेस' में किराने का सामान खरीदना इन महिलाओं के लिए अब दूभर हो गया है। ये महिलाऐं शाम को बूढ़ों की बैठक जमे, इससे पहले ही सौदा खरीदने या पड़ौसन से बतियाने जैसा काम निपटा लेती हैं। बैठक के वक्त महिलाओं ने सड़क पर चलना बन्द कर दिया है ा महिलाओं की अनुपस्थिति बूढ़ों को अन्दर ही अन्दर कचौट रही है। यह दर्द घुटनों के दर्द से बड़ा है पर कहें तो कैसे कहें और किससे कहें !

महिलाओं के नदारत होने पर बूढोंं ने राह गुजरते बच्चों से दोस्ती करने की सोची। उन्होंने खेलने जाते बच्चों से देश्‍-दुनिया के सामान्य ज्ञान के सवालों को पूछना श्‍ुरू किया। एक दिन तिवारी जी ने एक बालक से बडेृ दुलार से बात करनी चाही तो वह 'मम्मी बुला रही कहकर अदृश्यी हो गया।
इस बालक ने अपने दोस्तों को बूढ़ों की बैठक की खबर दे दी। नतीजा यह है कि बूढ़े अब सन्नाटे में बैठे हैं। गली का दुकानदार भी बूढ़ों को तिरछी नजर से देखने लगा है। उसकी दुकानदरी आधी रह गई है।

आजकल मेरी गली के सीनियर सिटीजनों को गठिया, दांत का दर्द और कब्ज ज्यादा सताने लगी है। ये बूढ़े अब बात कम कर, बाबा रामदेव की कपालभाती और अनुलोम-विलोम में ज्यादा रूचि ले रहे हैं।

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ओ0पी0आई


सत्तर बसन्त देख चुके चचा के सर के बाल सन जैसे सफेद हैं। एक दिन एक पड़ौसी ने हवेली की ढयोड़ी पर बैठे चचा के बालों की सफेदी की वजह पूछी। चचा बोले- 'बेटा ! ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए। चचा की बात पडौसी की समझ में नहीं आई। उसने अपने मित्र को पूरा वाक्या सुनाया। मित्र चचा की फितरत से वाकिफ था। उसे मालूम था कि पिछले एक साल से चचा ने अपनी बातचीत का तौर-तरीका बदल लिया है। वह सीधे-साधे सवालों के आड़े तिरछे जबाव देते हैं। मित्र ने पड़ौसी को समझाया कि चचा का मतलब है कि उनके सन जैसे बाल अनुभव रूपी ज्ञान की नि‍शानी है। अर्थ समझ कर पड़ौसी चचा की बुध्दि का कायल हो गया।

बुध्दि के मामले में चचा ने एक भी क्षेत्र में गच्चा नहीं खाया है। पड़ौसी को बातचीत में मजा आने लगा। उसने दूसरा सवाल दागा, 'चचा तुम बीजेपी में रहे, कांग्रेस में गए, माया और मुलायम सभी के आंगन में टहल आए हो। आजकल किस पार्टी में हो! चचा तपाक से बोले, 'ओ.पी.आई.।'

बम्पर गैद की तरह चचा की बात पड़ौसी के सर के ऊपर से फिर निकल गई। पड़ौसी बेचारा फिर सकते में। वातावरण में चुप्पी छाई रही। पड़ौसी अंग्रेजी के तीन अक्षर ओ

पी.आई. से क्या बनता है का अर्थ लगाने में माथापच्ची करता रहा लेकिन उसकी अक्ल जबाब दे गई। चचा ने तब ओ.पी.आई. का अर्थ बताया 'ओपोरच्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इ्रंडिया।' यानी 'भारत की अवसरवादी पार्टी।'

कामयाबी का फंडा बताते चचा ने कहा राजनिति में एक की कंठी लेने से जिन्दगी नहीं चलती। जैसा देष वैसा भेष की नीति सबसे अच्छी है। अपुन सभी दलों में टहल आए है। सभी दलों का एक जैसा हाल है। कुछ नेता मजे में हैं और ज्यादातर लोग घुटन भरी जिन्दगी जी रहे हैं। ये बडे नेता अपने कार्यकर्ताओं को पार्टी के प्रति वफादारी का पाठ पढाते नहीं थकते। सार्वजनिक मंच पर ये नेता विरोधी दल के नेताओं की बधिया उधेड़कर एक दूसरे के जानी दुष्मन होने का संदेष जनता को देते हैं। लेकिन निजी जीवन में रात के अंधेरे में ये नेता आपस में ऐसे मिलते हैं जैसे चोर-चोर मौसेरे भाई। इन नेताओं के झूठ-सच का सही अनुमान वोटर नहीं लगा पाता। झूठ पकड़ा न जाए इसके लिए इन नेताओं को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। नेताओं को हिसाब रखना पड़ता है कि पहले क्या कहा था।

बस इन्हीं सब झंझटों को देखकर हमने अपनी नई पार्टी 'ओ.पी.आई.' बनाई है। हमारी पार्टी के कुछ प्रमुख नारे हैं- 'अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता', 'चढ़ते सूरज को प्रणाम', 'डूबते जाहज को अलविदा', 'तैरते जहाज में छलांग', आदि , दल बदल कानून का विरोध करना अपुन की पार्टी का प्रमुख ऐजेन्डा है।

ओ.पी.आई. के संविधान की खूबी यह है कि कोई भी सदस्य किसी अन्य दल में मनचाहे दिनों के लिए कभी भी आ जा सकता है। वह दूसरे दल में भले ही रहे, ओ.पी.आई.से उसकी सदस्यता समाप्त नहीं होगी। चचा ने अपनी इस पार्टी की एक अन्य विशेष्ताभ बताते हुए कहा कि अन्य दलों के लोगों को मुंह में राम बगल में छुरी की नीति अपना कर दो-दो मुखौटे अपने पास रखने पड़ते हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत ओ.पी.आई. के सदस्यों को अपने असवरवाद को छुपाने के लिए किसी ढ़ोंग की जरूरत नहीं।

इंदिरा गांधी जैसे कद्दावर वृक्ष के गिरने के बाद धरती हिली। मसलन, दंगे फसाद हुए, बाबरी मस्जिद टूटी, गोधरा कांड हुआ, गुजरात में मोदी की प्रयोगशाला बनी। इन सब कमों को अंजाम देने बाले बेचारे नेता 'मैं नहीं' 'मैं नहीं' कहते घूम रहे हैं।

'ओ.पी.आई.' पार्टी की नीति-रीति एक है यानि दो टूक जुबान। ईमानदारी इसकी आधाराश्‍ला है। हम जो हैं वो हैं। दुराव-छपाव की कोई जरूरत नहीं। तभी तो पार्टी कार्यकर्ता अपने दिन की श्‍रूआत इस नारे से करते हैं - 'गर्व से बोलो ओ.पी.आई'।

चचा के मकान पर ओ.पी.आई. का झंडा लहर-लहर लहरा रहा है। ओ.पी.आई. पार्टी के झंडे की तरफ बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी, एसपी, सीपीएम, सीपीआई आदि दलों के झंडे ललचाई नजर से देख रहे हैं। चचा के झंडे को मांगने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है।





Tuesday, March 16, 2010

अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता

    चचा सुखराम की स्कूली शिक्षा न के बराबर है लेकिन उनका दिमाग गजब की विश्लेषण क्षमता रखता है। यही कारण है कि उनके इर्दगिर्द पढ़ेलिखों की भीड़ सदैव रहती है। बहुत सी बातें बहुतों की समझ में नहीं आती पर इहें समझना चचा के लिए मानो बच्चों का खेल है।खचाखच भरी बैठक में कहावतों पर बात चल रही थी। चचा का कहना था का शानदार और जानदार कहावतों को गढ़ने वाले विद्वान ही नहीं होते बल्कि बिना डिग्री वाले लोग कहावतों को जन्म देकर समज को रोशनी दिखाते हैं।
इसके बाद चचा मुख्य बात पर आए। बोले- 'मैंने अपने इलाके के विधायक पिद्दीलाल से पूछा कि तुम अपनी जनता से वोट बड़ी विनम्रता से माँगते हो, षानदार जीत हासिल करते हो लेकिन कुर्सी मिलते ही ऐसे ऑंखें फेर लेते हो जैसे जानते ही नहीं।' इस पर विधायक जी बोले- 'देखो चचा ! चुनाव में वोटर हमारी बड़ी दुर्गति करता है। हम घर-घर जाते हैं, हाथ जोड़ते हैं, पैर पकड़ते हैं। किसी को चाची, किसी को माताजी,किसी को बहनजी तो किसी को बूआजी कहकर अपनी जुबान सुखाते हैं तब जाकर उनके कलेजे में समाकर जीत हासिल करते हैं।छोटीसी मषीन का नन्हा सा बटन दबाने में वोटर की मानो नानी मरती है। चचा ! अब आप ही बताओ। एक भलामानस हारने पर गाली देगा और जीतने पर मुंह फेरेगा कि नहीं। अपुन का सिध्दान्त है 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।'

विधायक पिद्दी की कहावत में तर्क की कोई कमी नहीं थी सभी को भाया। चचा बोले-'एक किस्सा और सुनो। '
यह बात उच्च शिक्षा के कामयाब दुकानदार की है। कई इंजीनियरिंग कालेज का मालिक है वह। विधायक पिद्दी का यार है सो उसकी कहावत को सीने से लगाए फिरता है। एक दिन बोला कि ' मैं अपने कालेज में 7-8 हजार में मास्टर रखता हूं। ये मास्टर 4-5 वर्ष में तरक्की पाकर 13-14 हजार तक पहुँच जाते हैं। तब मास्टरों का यह वेतन मेरी आंखों में खटकने लगता है। उन्हें नौकरी से निकालने का फैसला कर लेता हूँ। कालेज से निकालने से 6 माह पूर्व उसकी कमियां निकालना, मीमो थमाना, डांटना-डपटना षुरू कर देता हूं। इतना टेंशन देता हूं कि वह खुद बखुद इस्तीफा देकर नौ-दो ग्यारह हो जाता है। उसके जाने के बाद मैं उसकी जगह 7-8 हजार पर फिर से नियुक्ति कर लेता हूं। यह सब 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता' के सिध्दान्त पर करता हूँ।

चचा ने अफसरों, अपने नजदीकी रिश्तेदारों, पड़ोसियों, मित्रों के ऐसे अनेक किस्से सुनाए जो विधायक पिद्दी की कहावत पर अमल कर तरक्की की चौपड़ पर कुलांचें मार रहे हैं। बैठक में बैठे कई लोग पछता रहे थे कि विधायक पिद्दी को उन्होंने गुरू क्यों नहीं बनाया। चचा ने अपनी वाणी को विराम इस नैतिक सलाह से दी- 'निजी उत्थान करना है तो उठते-बैठते इस कहावत का जाप करो और मिलजुल कर समाज का भला करना है तो जैसे वैष्णों देवी के दर्षन के लिए चढ़ाई करते भक्तजन उद्धोष करते हैं 'जोर से बोलो जय माता की ', वैसे ही सुबह पार्क में और षाम को गली मोहल्लों में नारे लगाओ, 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।'


































Saturday, February 13, 2010

स्कूल ऑफ लीडरशि‍प



     मेरे मित्र ने खबर दी कि केंद्र सरकार शीघ्र ही जिला स्तर पर एक नायाब किस्म का स्कूल खोलने जा रही है। शि‍क्षा के विस्तार की सूचना पर मैं हर्षित था पर नायाब शब्द पर मैं चौंक पड़ा। तब मित्र ने स्पष्ट किया कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का लोकतंत्र कभी-कभी समुद्र में आए तूफान में फंसे जहाज की तरह डगमगाने लगता है। ऐसे में लोकतंत्र की मजबूती के लिए नेताओं के शि‍क्षित होने की जरूरत है। मित्र ने बता दिया कि शि‍क्षा से उसका आशय किसी विश्‍वविद्यालय की डिग्री या पी.एच.डी. से नहीं है। बल्कि उन गुरू-मंत्रों को सिखाने से है जिनमें पारंगत होने पर नेता के मन में छिपे मंसूबे को न तो जनता जान पाएगी और न ही टी.वी.-अखबार वालों को इसकी भनक लगेगी।
 
  शि‍क्षा के इस नवीन मन्दिर का नाम होगा 'स्कूल ऑफ लीडरशि‍प'। 'स्कूल ऑफ लीडरशि‍प' को नेता उत्पादक कारखाना भी कह सकते हैं।
   
 जनता नेताओं के व्यवहार से दु:खी है। सड़क हो या घर, विधानसभा हो या संसद, इन सभी स्थानों पर नेताओं द्वारा प्रदर्शि‍त ऊटपटाँग व्यवहार से नेतागिरी के धन्धे की साख गिरी है। लीडरशि‍प स्कूल के पाठयक्रम में ऐसी षिक्षा का शामिल किया गया है जिससे नेताओं के खाने कमाने के धन्धे पर कोई चोट न पड़े और दुनिया के सामने वे एक चरित्रवान, ईमानदार और देशभक्त नेता के रूप में जाने जाँए। पर्दे के पीछे के सच को छुपाने में वे माहिर बन जाँए।
 

 टी.वी. और अखबार वाले लोकप्रिय नेताओं की इसी कमजोरी का लाभ उठा रहे हैं। पत्रकारों द्वारा नेताओं के लिए किए गए 'स्टिंग ऑपरेशन' ने भारतीय लोकतंत्र की छवि को बेहिसाब चोट पहुँचाई है। पाठयक्रम में 'स्टिंग ऑपरेशन से कैसे बचें' विषय पर पूरा चेप्टर ही नहीं होगा बल्कि अनेक सेमीनार, भाषण आदि होंगे। इन आयोजनों में 'स्टिंग ऑपरेशन' में फंस चुके नेताओं को विशिष्ट अतिथि के रूप में बुलाकर उनके अनुभवों का लाभ उठाया जाएगा।

  'स्कूल ऑफ लीडरशि‍प' में फिलहाल दो ही कोर्स प्रारम्भ किये जाऐंगे। एक वर्षीय डिप्लोमा और दूसरा दो वर्षीय डिग्री कोर्स। एक वर्षीय डिप्लोमा में गाँव और शहर की नेतागिरी के प्रारम्भिक दौर की ऊँच-नीच सिखाई जाएगी जबकि डिग्री कोर्स में विधायक और सांसद के सपने देखने वाले नेताओं की शि‍क्षा का प्रबन्ध होगा।
 

 मेरे मित्र ने डिप्लोमा और डिग्री दोनों कोर्स की फीस भी निर्धारित की है। फीस लेने में उदारता और दूरदृष्टि के सिध्दान्त को लागू किया गया है।
 
 यह बात तय है कि नेता बनने के इच्छुक छात्रों में अनेक ऐसे होंगे जिनकी जेबें खाली होगी। ऐसे लोगों के लिए एक कानूनी अनुबन्ध का प्रावधान होगा। इस प्रावधान के अनुसार छात्र की फीस 'एजूकेशन लोन' के रूप में दी जाएगी। छात्र इस लोन को नेता बनने के बाद चुकाएगा। नेतागिरी चमकने के बाद ऐसी रकम वे अपने विद्यामन्दिर को देंगे जिसका मूल्य लोन की रकम से दोगुना या तीन गुना होगा।

स्कूल के प्राचार्य कक्ष में लगी खूबसूरत पट्टिका पर ऐसे उदारमना नेताओं का नाम प्रमुखता से लिखा जाएगा। भारतीय लोकतंत्र का एक उज्जवल पक्ष यह है कि चुनाव जीतने के बाद नेता का रूतबा ही नहीं बढ़ता, साल के 365 दिन खुद-ब-खुद सुधरने लगते हैं। ऐसे में अपने विद्यामंदिर को कर्ज की रकम चुकाने में कोई दिक्कत नहीं, खुशी होगी।
 

 फैकल्टी का टोटा हर अच्छे शि‍क्षण संस्थान में देखा जा रहा है। मेरे मित्र ने इस समस्या का समाधान बिजिटिंग फैकल्टी के माध्यम से करने की सोची है। लालू सरीखे नेताओं को इस फैकल्टी में शामिल किया जाएगा।
 
           
                   






                 







             











Tuesday, February 9, 2010

आटे में नमक



                      
भ्रष्टाचार, अनैतिकता, बेईमानी, दलाली आदि शब्द बेमानी हो गए हैं। इन शब्दों पर गौर फर्माना समय की बर्बादी है। एक जमाना था जब समझदार लोग इन शब्दों को हेय दृष्टि से देखते थे और और इन शब्दों को सीने से चिपकाकर चलने वालों से घृणा करते थे। 
     

यह बात मैं अपने एक नौजवान मित्र को सुना रहा हूँ। और अतीत के स्वर्णिम काल में गोते लगा कर आनन्दित हो रहा हूँ। मैंने सोचा कि मेरा मित्र मेरे प्रवचन को सुन मेरे प्रति श्रध्दानत् हुआ होगा और मेरे प्रति उसके  चेहरे पर प्रशंसा के भाव होंगे लेकिन ऐसा कुछ न था। मित्र के चेहरे पर बोरियत के चिन्ह स्पस्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। उसने क्षमा याचना करते और वक्त की दुहाई देकर विदा माँगी और चलते बना। मित्र की यह हरकत मुझे अटपटी लगी।
    

 ऐसे गफलत के क्षणों में मुझे चचा सुखराम याद आए। हकीम लुकमान शरीर के अन्दर के विकारों को दूर करने के लिए विख्यात थे। मैं चचा को मन के विकार को भगाने का सबसे श्रेष्ठ मनोचिकित्सक मानता हूँ।
     

मेरे माथे पर पड़ी लकीरें देख चचा समझ गए कि आज फिर मूर्ख नैतिकता और अनैतिकता के लफड़े में पड़ गया। जीवन के हर क्षेत्र में घुस आए भ्रष्टाचार रूपी दानव की चर्चा करूँ, इससे पूर्व चचा चालू हो गए बोले, 'देख बेटा ! मानव योनी में जन्म लिया है तो मस्त रहने के फंडे सीख। समय देख और समय की धार देख। तभी मस्त रहेगा।'
    

चचा पुरानी कहावतों का उच्चारण तो करते ही हैं, प्रचलित कहावतों में तनिक हेर-फेर करने में भी माहिर हैं। 
    मैं चचा से बतिया रहा था तभी पड़ोस की मिसेज खन्ना का प्रवेश हुआ। बिना किसी प्रसंग के बोली, 'चचा अपना एम.एल.ए. कालूराम कमाल का है। मेरी कालोनी की सब सड़कें सी.सी. रोड हैं। एक पत्थर सड़क बनने से पहले और दूसरा सड़क बनने के बाद लगवाता है। नाम खुदे पत्थर से मालाओं से लदा-फदा एम.एल.ए. कालू जब रेशम का पर्दा सरकाता है तो जोरदार तालियों की गड़गड़ाहट से सभी की बाँछें खिल जाती हैं।
    

चचा ने मिसेज खन्ना की बात सुन 'बहुत खूब' कहा पर मैंने नाक भौं सिकोड़ी क्योंकि मैं एम.एल.ए. कालू की करतूतों की कालिख से बखूबी परिचित था। साइकिल से राजनीति करने वाला कालू आज करोड़ों में खेल रहा है। विधायक निधि से कोई काम करवाता है तो 20 फीसदी कमीशन ठेकेदारों से वसूलता है। मैंने मिसेज खन्ना को टोका 'मिसेज खन्ना! आप एक भ्रष्ट नेता को महिमामंडित न करो तो अच्छा है।' मिसेज खन्ना बोली-
'हाँ भाई-साहब आप जैसे ईमानदार खूब देखे। न काम के न काज के, बस हैं तो सौ मन अनाज के। बीस बरस से कालोनी वाले नरक भुगत रहे थे। अब कम से कम बच्चे-औरतें सड़क पर बिना गिरे चलने फिरने का सुख तो भोग रहे हैं।' 
    

मैं सोचने लगा कि अब भ्रष्टाचार और बेईमानी जैसे शब्दों के अर्थ बदलने लगे हैं। मुझे दु:खी देख चचा  मिसेज खन्ना की ओर मुखातिब हुए और बोले - ' मिसेज खन्ना! आटे में नमक चलेगा। भैंस समेत खोआ करने की इजाजत मैं भी नहीं देता। 
                                      
   
    मिसेज खन्ना समझ गर्इं और अपने प्रिय एम.एल.ए. कालू को एक तमगा देती बोली- 'चचा अपुन का कालू भी 'भैंस समेत खोआ' के खिलाफ है।'