बन्दूक का सिपाही बना कलम का सिपाही
अशोक बंसल
देश में शासन-प्रशासन की दुर्व्यवस्था और जन प्रतिनिधियों के अनाचारों पर यदि एक साधारण पुलिसकर्मी कलम चलाए तो हैरत तो होगी ही। पुलिसकर्मी सुरेश चाहर ने ऐसा ही किया है। मथुरा में सिपाही से सबइंस्पेक्टर बना सुरेश हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में एम.ए. है और पिछले दिनों हिन्दी में पीएचडी कर उसने अपनी अध्ययनशीलता का परिचय दिया है। हैरत इस बात की भी है कि एक हाथ में बन्दूक और दूसरे में कलम थामने वाले सुरेश की पीठ थपथपाने वाला कोई नहीं।
आगरा जिले की किरावली तहसील के 38 साल के सुरेश ने बताया कि किसान का बेटा होने के कारण उसने 1992 में पुलिस में सिपाही की नौकरी शुरू की। उसे बचपन से पढ़ने लिखने का शौक था। मथुरा में विभिन्न स्थानों पर सिपाही के रूप में तैनात रहते उसने अध्यापकों से संपर्क रखा और हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा देता रहा और पास होता रहा। सुरेश ने बताया कि मथुरा के के.आर.डिग्री कॉलेज के हिन्दी के प्रो0 रमाशंकर पाण्डेय और डॉ.अनिल गहलौत की प्रेरणा से उसने पी.एच.डी डिग्री के लिए काम शुरू किया। तीन वर्ष में वह सुरेश से डॉ0 सुरेश हो गया।
हिन्दी में प्रेमचन्द और अंग्रेजी में मिल्टन को पसन्द करने वाले सिपाही सुरेश ने बताया कि उसे पढ़ने लिखने का शौक अवश्य है लेकिन अपनी नौकरी में कभी कोई लापरवाही नहीं बरती। यह बात अलग है कि पुलिस की नौकरी में उसे दिलचस्पी नहीं और वह किसी कॉलेज में प्रोफेसर बन अध्ययन-अध्यापन में लगना चाहता है।
सुरेश अपनी विभागीय परीक्षा पासकर अब सबइन्सपेक्टर है और तैनाती पड़ोसी जिला हाथरस कोतवाली में है। उसने बातया कि पुलिस की नौकरी में रहते उसे जीवन और समाज को जानने का अच्छा मौका मिला है। इसका सदुपयोग उसने ‘तपस्या’ उपन्यास लिखकर किया है। सुरेश के गुरू मथुरा के.आर. कालेज के प्रोफेसर अनिल गहलौत ने बताया कि सुरेश उनके संपर्क में काफी अरसे से है। साहित्य के प्रति एक सिपाही का अनुराग देख कर वह खुद अचम्भे में हैं। ‘तपस्या’ उपन्यास उसकी लगन और ईमानदार सोच का नमूना है। डा0 अनिल ने बताया कि पिछले दिनों उनका प्रोफेसर मित्र छठे बेतन आयोग के लागू होने पर एरिअर के रूप में अच्छी रकम मिलने पर रिवाल्वर खरीदकर लाया था जबकि सुरेश अपना पहला वेतन मिलने पर दौड़ा-दौड़ा पुस्तक की दुकान पर गया और उसने प्रेमचन्द का गोदान खरीदा था।
अपनी उपलब्धियों पर मौन रहने वाले सुरेश ने बताया कि पुलिस विभाग और उसमें काम करने वाले छोटे-बड़े अधिकारी समाज के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। शोषित-पीड़ित को न्याय दिलाने में उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। दुःख तो इस बात का है कि पुलिस वाले अपने आपको पहचानने में भूलकर बैठे हैं बिलकुल वैसे जैसे जनता द्वारा चुने गये नेता।
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अशोक बंसल
देश में शासन-प्रशासन की दुर्व्यवस्था और जन प्रतिनिधियों के अनाचारों पर यदि एक साधारण पुलिसकर्मी कलम चलाए तो हैरत तो होगी ही। पुलिसकर्मी सुरेश चाहर ने ऐसा ही किया है। मथुरा में सिपाही से सबइंस्पेक्टर बना सुरेश हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में एम.ए. है और पिछले दिनों हिन्दी में पीएचडी कर उसने अपनी अध्ययनशीलता का परिचय दिया है। हैरत इस बात की भी है कि एक हाथ में बन्दूक और दूसरे में कलम थामने वाले सुरेश की पीठ थपथपाने वाला कोई नहीं।
आगरा जिले की किरावली तहसील के 38 साल के सुरेश ने बताया कि किसान का बेटा होने के कारण उसने 1992 में पुलिस में सिपाही की नौकरी शुरू की। उसे बचपन से पढ़ने लिखने का शौक था। मथुरा में विभिन्न स्थानों पर सिपाही के रूप में तैनात रहते उसने अध्यापकों से संपर्क रखा और हिन्दी अंग्रेजी, संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा देता रहा और पास होता रहा। सुरेश ने बताया कि मथुरा के के.आर.डिग्री कॉलेज के हिन्दी के प्रो0 रमाशंकर पाण्डेय और डॉ.अनिल गहलौत की प्रेरणा से उसने पी.एच.डी डिग्री के लिए काम शुरू किया। तीन वर्ष में वह सुरेश से डॉ0 सुरेश हो गया।
हिन्दी में प्रेमचन्द और अंग्रेजी में मिल्टन को पसन्द करने वाले सिपाही सुरेश ने बताया कि उसे पढ़ने लिखने का शौक अवश्य है लेकिन अपनी नौकरी में कभी कोई लापरवाही नहीं बरती। यह बात अलग है कि पुलिस की नौकरी में उसे दिलचस्पी नहीं और वह किसी कॉलेज में प्रोफेसर बन अध्ययन-अध्यापन में लगना चाहता है।
सुरेश अपनी विभागीय परीक्षा पासकर अब सबइन्सपेक्टर है और तैनाती पड़ोसी जिला हाथरस कोतवाली में है। उसने बातया कि पुलिस की नौकरी में रहते उसे जीवन और समाज को जानने का अच्छा मौका मिला है। इसका सदुपयोग उसने ‘तपस्या’ उपन्यास लिखकर किया है। सुरेश के गुरू मथुरा के.आर. कालेज के प्रोफेसर अनिल गहलौत ने बताया कि सुरेश उनके संपर्क में काफी अरसे से है। साहित्य के प्रति एक सिपाही का अनुराग देख कर वह खुद अचम्भे में हैं। ‘तपस्या’ उपन्यास उसकी लगन और ईमानदार सोच का नमूना है। डा0 अनिल ने बताया कि पिछले दिनों उनका प्रोफेसर मित्र छठे बेतन आयोग के लागू होने पर एरिअर के रूप में अच्छी रकम मिलने पर रिवाल्वर खरीदकर लाया था जबकि सुरेश अपना पहला वेतन मिलने पर दौड़ा-दौड़ा पुस्तक की दुकान पर गया और उसने प्रेमचन्द का गोदान खरीदा था।
अपनी उपलब्धियों पर मौन रहने वाले सुरेश ने बताया कि पुलिस विभाग और उसमें काम करने वाले छोटे-बड़े अधिकारी समाज के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। शोषित-पीड़ित को न्याय दिलाने में उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। दुःख तो इस बात का है कि पुलिस वाले अपने आपको पहचानने में भूलकर बैठे हैं बिलकुल वैसे जैसे जनता द्वारा चुने गये नेता।
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