Thursday, October 8, 2009

मथुरा और 1857 का संग्राम- मथुरा कलेक्‍टर भेष बदलकर भागा





देश के स्वाधीनता आन्दोलन की सर्वाधिक लोमहर्षक घटना 1857 की क्रान्ति है। इस क्रान्ति में स्‍वाधीनता के मतवालों ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद को उखाड फैंकने के लिए क्या नहीं किया ? यह संघर्ष अंग्रेजी दमन का शिकार तो हुआ , लेकिन आज भी इस क्रान्ति और उससे जुडी अनेक विस्मयकारी और रोमांचक घटनाएं हैं। ऐसी ही एक घटना मथुरा की है जब अंग्रेज कलेक्टर थौर्नहिल को भारतीय क्रान्तिकारियों से अपनी जान बचाने के लाले पड़ गए। और मथुरा के एक सेठ की मदद से उसे भेष बदल कर भागना पडा

देश को आजाद करने की चिंगारी फूट चुकी थी । 14 मार्च1857 को गुड़गाँव के मजिस्ट्रेट ने मथुरा के कलेक्टर थौर्नहिल के पास खबर भेजी कि हिन्दुस्तानी विद्रोही मथुरा की तरफ बढ़ रहे हैं। कलेक्टर ने बहुत से अंग्रेज स्त्री-बच्चों को सुरक्षा की दृष्टि से आगरा भेज दिया। उस समय मथुरा की तहसील के सरकारी खजाने में  साढे पांच लाख रूपये थे
गदर कालीन तहसील मथुरा के सदर बाजार के एक भवन में थी। वह जगह आज खण्डहरों की शक्ल में है।

दिल्ली से क्रान्तिकारियों के आगरा की तरफ कूच करने की खबरें लगातार मिल रहीं थी। थौर्नहिल ने सोचा एक लाख रूपया वक्त जरूरत के लिए रख लिया जाये और बाकी रूपया आगरा में सुरक्षित स्थान पर पहुचा दिया जाए। ताँबे के सिक्कों से भरे बक्सों को गाड़ि‍यों पर लाद दिया गया। लेफ्टिनेट बर्टन नाम का फौजी सिक्कों से भरी गाड़ि‍यों की देख-रेख के लिए तैनात किया गया। खजाने की सुरक्षा के लिए जवानों की दो कम्पनियां लगाई गई थीं। जैसे ही गाड़ि‍यों को आगे बढने का हुक्म दिया गया ।
      एक हिन्दुस्तानी सूबेदार ने  लेफ्टिनेट बर्टन से पूछा - ''खजाना किधर जाएगा ?'' ''आगरा की ओर।'' लेफ्टिनेट बर्टन ने जवाब दिया। ''नहीं दिल्ली चलो।'' सूबेदार दहाड़ा। ले. बर्टन भी अपना संतुलन खो बैठा । उसके मुँह से निकला 'गद्दार' और बस पीछे खडे एक अन्य हिन्दुस्तानी की बन्दूक ने गोली उगल दी। ले. बर्टन वहीं पसर गया। यह घटना 30 मई 1857 की है। सिपाहियों ने तहसील का दफ्तर जला दिया। अंग्रेजों के बंगले भी जला दिए। मथुरा की जेल के दरवाजे तोड दिये और सारे कैदी आजाद कर दिये। लूटे हुए खजाने के साथ सिपाही दिल्ली की तरफ बढ़े। थौर्नहिल उस वक्त छाता में डेरा डाले था। विद्रोहियों को रोकने की उसने कोशिस की, मगर नाकामयाव रहा । एफ.एस. ग्राउज ने अपनी पुस्तक 'मथुरा ए डिस्टिक्ट मैमोअर' में लिखा है कि ''31 मई को विद्रोही सैनिक कोसी पहुँचे। उन्होंने अंग्रेजों के बंगलों तथा पुलिस  को तहस-नहस कर दिया। वे तहसील भी पहुँचे। वहां उन्हें केवल 150 रूपये ही मिले।''                                   

कलेक्टर थौर्नहिल ने छाता से मथुरा आना ही उचित समझा लेकिन वह अपने बंगले में घुसने का साहस न जुटा सका । वह विश्रामघाट पर अपने एक शुभचिन्तक सेठ लक्ष्मीचन्द की हवेली में कई दूसरे अंग्रेजों के साथ चला गया। सेठ जी की हवेली में रहते हुए थौर्नहिल को खबर लगी कि विद्रोहियों की फौज मथुरा में आ रही है। थौर्नहिल सेठ लक्ष्मीचन्द के यहॉ असुरक्षित अनुभव करने लगा। तब सेठ जी के कहने पर थौर्नहिल ने एक ग्रामीण का भे धरा और सेठ जी के एक विश्वस्त नौकर दिलावर खाँ के साथ पैदल ही आगरा की ओर चल दिया। जब वे औरंगाबाद पहुँचे तो वहाँ पहले से मौजूद क्रांन्तिकारियों के घेरे में खुद को पाकर वे घबड़ा गए। क्रांन्तिकारियों को शक हुआ , लेकिन दिलावर खाँ  के कारण थौर्नहिल का असली रूप कोई न पहचान सका। आगरा पहुँचकर थौर्नहिल ने चैन की सांस ली।
 गदर के बाद थौर्नहिल ने दिलावर खाँ के अहसान को वृन्दावन रोड पर जमीन का एक टुकडा देकर चुकाया। सेठ जी को मथुरा में यमुना किनारे जमीन मिली। गदर के बाद थौर्नहिल आगरा से मथुरा लौट आया और अपने मददगार हिन्दुस्तानियों को खूब धन - दौलत इनाम में बाँटी। ले. बर्टन की याद में उसकी कब्र भी बनवाई। आज मथुरा के सदर बाजार में यमुना किनारे ले. बर्टन की कब्र उपेछित पड़ी है। मथुरा में 1857 के गदर की यह एक मात्र निशानी है। यमुना का कटा इस कब्र को कभी भी बर्बाद कर सकता है।    

6 comments:

  1. चिटठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. मेरी शुभकामनाएं.
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    हिंदी ब्लोग्स में पहली बार Friends With Benefits - रिश्तों की एक नई तान (FWB) [बहस] [उल्टा तीर]

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  2. बहुत ही रोमांचक दास्ताँ पढाया आपने. आपका बहुत धन्यवाद!

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  3. आपके लेख से इतिहास के ज्ञान के साथ साथ. मनन में जोश भी पैदा होता है...
    ज्ञानवर्धक लेख के लिए बधाई

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  4. बहुत अच्छा लगा,आप का लेख, मथुरा में क्रान्तिकारियों का प्रभाव,स्वागत है,आपका बलोगजगत में ।

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  5. हुज़ूर आपका भी एहतिराम करता चलूं......
    इधर से गुज़रा था, सोचा सलाम करता चलूं..
    www.samwaadghar.blogspot.com

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