Monday, October 26, 2009

1857 के गदर के अवि‍स्‍मरणीय क्षण : देशी तलवार की गूंज इंग्लैण्‍ड तक

             
                 

1857 के गदर के नाम से विख्यात भारतीय स्वाधीनता संग्राम की प्रथम लडाई, में हमारे रणबांकुरों से जिस हिम्मत और बहादुरी से अंग्रेज फौज के छक्के छुडाए उसके किस्सों से इतिहास लवालव है। हथियारों और युध्द के साजो-सामान की आधुनिकता के कारण अंग्रेजों ने स्वाधीन होने की ललक को भारतीय योध्दाओं के सीने मे दबा तो दिया लेकिन अंग्रेजी फौज के अफसर हिन्दुस्तानियों की बहादुरी के कायल हो गए। गदर के बाद उनके अफसरों ने इंग्लैंड लौटकर संस्मरण लिखे। ऐसे ही अफसरों  में से एक था फोब्स माइकेल । गदर के बक्त फोब्स माइकेल लखनऊ में सार्जेन्ट  के पद पर तैनात था। फोब्स इंग्लैंड गया और गदर के अनुभवों पर आधारित एक संस्मरणात्मक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में फोब्स माइकेल ने हिन्दुस्तानियों की तलवार के निर्माण की तकनीक का वर्णन किया है। यह वर्णन चौंकाने वाला ही नहीं बरन रोचक भी है।

सार्जेन्ट फोब्स माइकेल पर गदर का मुकाला करने की पूरी जिम्मेदारी थी। जंग जोरों पर थी। आजादी के लिए मचलते हिन्दुस्तानियों की बहादुरी देखते ही बनती थी। वे अंग्रेजी फौज पर टूट पडे थे। फौज में खलबली मच गई। एक-एक वीर चार-चार फिरंगियों पर हावी था। अंग्रेज अफसरों में मंत्रणा हुई और जानने की कोशि‍श हुई कि तोप और बन्दूकों के आगे हिन्दुस्तानी गदर मचाने में क्यों कामया है। मालूम हुआ हिन्दुस्तानी तलवार के आगे बरमिघंम में निर्मि अंग्रेजी तलवार फीकी है। यह किसी भी मायने में टिकती नहीं। आश्‍चर्य की बात यह थी कि तब बरमिघंम की तलवारें दुनिया भर में महूर थी। फोब्स माइकेल ने अपने संस्मरणों में भारतीय तलवार के जौहर के कई ऑंखों देखे उदाहरण दिये हैं। इनमे से कुछ एक का उल्लेख करना अनुचित न होगा।

आमने -सामने की लडाई में तलवारों की टंकार रणभूमि में गूंज रही थी। तभी एक योध्दा जेम्स रेड्डी नामक अंग्रेज फौजी पर बिजली की गति से टूटा। तलवार के एक वार से जेम्स का सर दो भागों में बट गया। जेम्स जमीन पर जा गिरा उससे पूर्व भारतीय वीर ने उसके रीर पर तलवार से दूसरा वार किया। धड़ दो हिस्सों में बट कर जमीन पर जा गिरा। जेम्स के दो अन्य भाई भी उस जंग में हिस्सा ले रहे थे। जेम्स के दूसरे भाई जॉन की नजर इस अकल्पनीय दृश्‍य पर पडी। क्रोध में आग -बबूला जॉन भारतीय योध्दा की ओर लपका । क्रुध्द जॉन रीड ने अचानक अपनी बन्दूक की बोनट योध्दा पर दे  मारी ।
योध्दा दम तोडे ससे पूर्व उसने जन रीड के कंधे पर जोरदार प्रहार किया तलवार उसकी छाती चीरती हुई जनेऊ की क्ल में साफ निकल गई। भारतीय वीर तलवार के इस वार को जनेऊ काट वार कहते थे। घायल योध्दा ने भी दम तोड दिया और जॉन का रीर दो भागों में विभक्त हो गया। तीसरा भाई सार्जेन्ट डेवि‍ड मके पर आया। उसने निश्‍चेष्‍ट पडे योध्दा की तलवार उठाई और मरे योध्दा की गर्दन पर वार कर दिया। गर्दन धड से ऐसे अलग हो गई मानो बन्द गोभी हो।  अंग्रेज अफसरों ने तब इस तलवार की जॉच कराई। मालूम हुआ कि भारतीय लोग किसी तलवार को प्रयोग में लाने से पूर्व उसकी परीक्षा लेते थे और परीक्षण का देसी तरीका अंग्रेजों को चौंकाने वाला था। एक बडी मछली जिसे रूई में लपेट कर चारपाई पर रखा जाता था। तलवार के एक वार से यदि मछली दो भागों में ट जाए तो समझो तलवार जंग के मैदान में भेजे जाने योग्य थी अन्यथा प्रयोग में नहीं लाया जाता था। तलवार को प्रयोग में लाने से इसकी धार और ज्यादा घातक बन जाए, इसके लिए इसे आर्सेनिक घोल में डुबोया जाता था।

फोब्स माइकेल ने ब्रिटि अधिकारियों को सलाह दी कि बरमिघंम में बनाई जा रही तलवारों के निर्माण में सुधार किया जाए और इसके लिए हिन्दुस्तानी तलवार की निर्माण तकनीक को मॉडल के रूप में सामने रखा जाए।




Thursday, October 8, 2009

मथुरा और 1857 का संग्राम- मथुरा कलेक्‍टर भेष बदलकर भागा





देश के स्वाधीनता आन्दोलन की सर्वाधिक लोमहर्षक घटना 1857 की क्रान्ति है। इस क्रान्ति में स्‍वाधीनता के मतवालों ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद को उखाड फैंकने के लिए क्या नहीं किया ? यह संघर्ष अंग्रेजी दमन का शिकार तो हुआ , लेकिन आज भी इस क्रान्ति और उससे जुडी अनेक विस्मयकारी और रोमांचक घटनाएं हैं। ऐसी ही एक घटना मथुरा की है जब अंग्रेज कलेक्टर थौर्नहिल को भारतीय क्रान्तिकारियों से अपनी जान बचाने के लाले पड़ गए। और मथुरा के एक सेठ की मदद से उसे भेष बदल कर भागना पडा

देश को आजाद करने की चिंगारी फूट चुकी थी । 14 मार्च1857 को गुड़गाँव के मजिस्ट्रेट ने मथुरा के कलेक्टर थौर्नहिल के पास खबर भेजी कि हिन्दुस्तानी विद्रोही मथुरा की तरफ बढ़ रहे हैं। कलेक्टर ने बहुत से अंग्रेज स्त्री-बच्चों को सुरक्षा की दृष्टि से आगरा भेज दिया। उस समय मथुरा की तहसील के सरकारी खजाने में  साढे पांच लाख रूपये थे
गदर कालीन तहसील मथुरा के सदर बाजार के एक भवन में थी। वह जगह आज खण्डहरों की शक्ल में है।

दिल्ली से क्रान्तिकारियों के आगरा की तरफ कूच करने की खबरें लगातार मिल रहीं थी। थौर्नहिल ने सोचा एक लाख रूपया वक्त जरूरत के लिए रख लिया जाये और बाकी रूपया आगरा में सुरक्षित स्थान पर पहुचा दिया जाए। ताँबे के सिक्कों से भरे बक्सों को गाड़ि‍यों पर लाद दिया गया। लेफ्टिनेट बर्टन नाम का फौजी सिक्कों से भरी गाड़ि‍यों की देख-रेख के लिए तैनात किया गया। खजाने की सुरक्षा के लिए जवानों की दो कम्पनियां लगाई गई थीं। जैसे ही गाड़ि‍यों को आगे बढने का हुक्म दिया गया ।
      एक हिन्दुस्तानी सूबेदार ने  लेफ्टिनेट बर्टन से पूछा - ''खजाना किधर जाएगा ?'' ''आगरा की ओर।'' लेफ्टिनेट बर्टन ने जवाब दिया। ''नहीं दिल्ली चलो।'' सूबेदार दहाड़ा। ले. बर्टन भी अपना संतुलन खो बैठा । उसके मुँह से निकला 'गद्दार' और बस पीछे खडे एक अन्य हिन्दुस्तानी की बन्दूक ने गोली उगल दी। ले. बर्टन वहीं पसर गया। यह घटना 30 मई 1857 की है। सिपाहियों ने तहसील का दफ्तर जला दिया। अंग्रेजों के बंगले भी जला दिए। मथुरा की जेल के दरवाजे तोड दिये और सारे कैदी आजाद कर दिये। लूटे हुए खजाने के साथ सिपाही दिल्ली की तरफ बढ़े। थौर्नहिल उस वक्त छाता में डेरा डाले था। विद्रोहियों को रोकने की उसने कोशिस की, मगर नाकामयाव रहा । एफ.एस. ग्राउज ने अपनी पुस्तक 'मथुरा ए डिस्टिक्ट मैमोअर' में लिखा है कि ''31 मई को विद्रोही सैनिक कोसी पहुँचे। उन्होंने अंग्रेजों के बंगलों तथा पुलिस  को तहस-नहस कर दिया। वे तहसील भी पहुँचे। वहां उन्हें केवल 150 रूपये ही मिले।''                                   

कलेक्टर थौर्नहिल ने छाता से मथुरा आना ही उचित समझा लेकिन वह अपने बंगले में घुसने का साहस न जुटा सका । वह विश्रामघाट पर अपने एक शुभचिन्तक सेठ लक्ष्मीचन्द की हवेली में कई दूसरे अंग्रेजों के साथ चला गया। सेठ जी की हवेली में रहते हुए थौर्नहिल को खबर लगी कि विद्रोहियों की फौज मथुरा में आ रही है। थौर्नहिल सेठ लक्ष्मीचन्द के यहॉ असुरक्षित अनुभव करने लगा। तब सेठ जी के कहने पर थौर्नहिल ने एक ग्रामीण का भे धरा और सेठ जी के एक विश्वस्त नौकर दिलावर खाँ के साथ पैदल ही आगरा की ओर चल दिया। जब वे औरंगाबाद पहुँचे तो वहाँ पहले से मौजूद क्रांन्तिकारियों के घेरे में खुद को पाकर वे घबड़ा गए। क्रांन्तिकारियों को शक हुआ , लेकिन दिलावर खाँ  के कारण थौर्नहिल का असली रूप कोई न पहचान सका। आगरा पहुँचकर थौर्नहिल ने चैन की सांस ली।
 गदर के बाद थौर्नहिल ने दिलावर खाँ के अहसान को वृन्दावन रोड पर जमीन का एक टुकडा देकर चुकाया। सेठ जी को मथुरा में यमुना किनारे जमीन मिली। गदर के बाद थौर्नहिल आगरा से मथुरा लौट आया और अपने मददगार हिन्दुस्तानियों को खूब धन - दौलत इनाम में बाँटी। ले. बर्टन की याद में उसकी कब्र भी बनवाई। आज मथुरा के सदर बाजार में यमुना किनारे ले. बर्टन की कब्र उपेछित पड़ी है। मथुरा में 1857 के गदर की यह एक मात्र निशानी है। यमुना का कटा इस कब्र को कभी भी बर्बाद कर सकता है।    

Saturday, September 26, 2009

नानाराव धुन्‍धु पन्‍त ने मथुरा में भी बनबाई थी हवेली

                  
        अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर अपने शौर्य  और  पराक्रम का  सिक्का जमाने वाले 1857  के गदर के कई किस्से आज तक उजागर नहीं हुए हैं। यह कम ही लोगों को पता है कि गदर के हीरो रहे नाना राव धुन्धु  पन्त ने मथुरा में भी एक हवेली बनाई  थी। इतिहास की  पुस्तकों में इस बात का जिक्र नहीं है कि नाना  ने मथुरा में अपनी हवेली  क्यों बनाई ? वे कब यहाँ आए और कब गए ? लेकिन सरकारी अभिलेखों में मथुरा में  नाना की हवेली होने का प्रमाण है।

मथुरा के इतिहासकार डा. भगवान सहाय  पचौरी ने  बताया कि उन्होंने मथुरा में नाना की हवेली के चिन्ह तलाषने की कोषिष की लेकिन सफलता नहीं मिली । नाना ने 1857 की महान क्रांति में बुन्देलखंड, अवध, बनारस और रूहेलखंड कमिनरियों में और दिल्ली मेरठ आदि स्थानों पर देभक्तों को एक जुट करने के लिए भाग दोड की थी। नाना के सिर पर ब्रिटि शासकों ने एक लाख का इनाम रखा था। यह महान देशभक्त मथुरा में महल बनवाकर अपने भतीजे बालाराव के साथ क्यों रहा। इस पर इतिहास मौन है लेकिन मथुरा कलक्टरी के बस्तों में रखे रिकार्ड में नाना के मथुरा महल का जिक्र है।

अंग्रेज कलक्टर एफ.एस ग्राउन ने गदर के बाद 'मथुरा: ए डिस्ट्रिक्ट मेमौअर' के नाम से एक पुस्तक लिखी थी इस पुस्तक के मुताबिक 14 मार्च, 1857 को गुड़गांव के मजिस्ट्रेट ने मथुरा के तत्कालीन कलक्टर मार्क थार्न हिल को खबर भेजी कि हिंन्दुस्तानी विद्रोही मथुरा की ओर बढ़ रहे हैं। र्थान हिल ने सरकारी खजाने को आगरा भिजवाने का प्रबंध किया और खुद सेठ कन्हैयालाल की हवेली में जा छुपा। बाद में भेष बदलकर आगरा भाग गया। हिंदुस्तानी क्रांतिकारी कोसी और छाता होते हुए मथुरा पहुंचे। 30 मई 1857 को क्रांतिकारियों ने एक अंग्रेज फौजी बर्टन को गोली मार दी और सात दिन तक मथुरा को अंग्रेजों से आजाद रखा। इसके बाद अंग्रेज फौज ने मथुरा में हमला बोला और क्रांतिकारियों को चुन-चुन कर मारा।

डाक्टर पचौरी ने बताया कि इसके बाद मथुरा से भागा कलक्टर थार्न हिल सात दिन बाद वापस आ गया। उसने 30 अक्टूबर 1857 को हर के कोतवाल को एक आदे जारी किया। उसने कोतवाल को लिखा, 'आपको नाना राव की रिहायष पूरी की पूरी गिरानी है। उसके बाग के सभी पेड़ कटवाने हैं। यह घोषणा करनी है कि जिस किसी भी हरी को कूडा - कर्कट और गंदगी फेंकनी हो, वह इस स्थान का प्रयोग करे। हर कोतवाल ने कलक्टर के हुक्म की तामील की। उसने अपने जवाब में लिखा, 'यथा आदे नाना साहब की रिहाइश गिराई जा रही है। बाग के पेड़ काटे जा रहे हैं। जनता को यहाँ कूड़ा और गंदगी डालने की घोषणा कर दी गई है। काम की पूर्ति के वाद निर्गत आदे का उत्तर लिख भेजा जाएगा।'
मथुरा संग्रहालय के एक अधिकारी ने बताया कि गदर के पुराने रिकार्ड मेरठ संग्रहालय भेज दिये गए हैं। डाक्टर पचौरी का कहना है इन अभिलेखों को मथुरा संग्रहालय में रखा जाना चाहिए। साथ ही नाना के महल का स्थान खोजा जाना चाहिए ताकि वहां नाना का स्मारक बनवाया जा सके।

Monday, September 21, 2009

ब्राह्मी लिपी के माहिर हैं पांचवीं पास मूलचंद

इंसान के इरादे बुलंद हों तो कुछ भी असंभव नहीं है। इस कहावत को सच सावित कर दिया है 53 साल के मूलचंद ने। मूलचंद मथुरा संग्रहालय में प्रदर्शित प्राचीन कलाकृतियों पर खुदी ब्राह्मी लिपि की इबादत ऐसे पढते हैं जैसे हिंदी में लिखी गई चिट्ठी । हैरत की बात है कि मूलचंद सिर्फ पांचवीं पास है। वे मथुरा संग्रहालय में पिछले35 साल से चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद पर तैनात है। ब्राह्मी का जन्म मौर्य काल (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ) का माना जाता है। छठी ताब्दी के गुप्त काल तक बनी मूर्तियों, सिक्कों व शि‍लालेखों पर ब्राह्मी लिपि का ही इस्तेमाल किया गया है। सम्राट अशोक के सभी 14 शि‍ला लेखों पर खुदी इबारत ब्राह्मी लिपि में है। पाली और ब्राह्मी को पढने की कहानी काफी दिलचस्प है। मूलचंद ने बाताया कि शुरूआती दौर में उनकी डयूटी संग्रहालय की वीथिका में लगाई गई थी। तब बर्लिन विश्‍ववि‍द्यालय की एक वयोवद्व प्रोफेसर संग्रहालय की मूर्तियों का बारीक अध्ययन करने आती थी। साल में पंद्रह दिन व मथुरा संग्रहालय में रूकती थी। मूलचंद ने बताया कि वे मूर्तियों पर लिखी इबात पर चढी धूल हटाते थे। प्रोफेसर टार्च की रोनी में ब्राह्मी लिपि की इबारतें पढ़ती थी। इसे सुनते हुए मूलचंद की दिलचस्पी बढ़ी। एक कापी बनाकर उन्होंने ब्राह्मी लिपि की वर्णमाला के आगे हिंदी वर्णमाला लिख ली। धीरे-धीरे उन्होंने मूर्तियों पर लिखी इबादत को तेजी से पढना सीख लिया। मूलचंद के मुताबि‍क अब वे ब्राह्मी लिपि में कुछ भी लिख सकते हैं।

प्राचीन मूर्तियों , मथुरा कला, भारतीय संसकृति और इतिहास की जानकरी रखने वाले त्रुघ्न र्मा के मुताबिक मूलचंद की प्रतिभा क कोई सानी नहीं है।लेकिन उसकी प्रतिभा की उपेक्षा हुई है। एक दक पहले एक निदेक ने मूलचंद को कलाकृतियों पर खुदी ब्राह्मी लिपि का अध्ययन करते देखकर गुस्सा आ गया था। उन्होंने मूलचंद को मूर्तियों की देखरेख के काम से हटा कर साइकिल स्टैंड पर भेज दिया। दरअसल निदेक को ब्राह्मी लिपि का कोई ज्ञान नहीं था।

मूलचंद ने बताया कि इस 2300 साल पुरानी लिपि को सबसे पहले 1839 में जेम्स प्रिंसेप नाम के अंग्रेज ने पढा था। 2006 में ब्राह्मी लिपि के उद्भव और विकास पर भाषण देने मथुरा संग्राहलय आए राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेक डा. आर.सी र्मा मूलचंद जैसे अशि‍क्षित चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की प्रतिभा देखकर चौंक गए। उन्होंने मूलचंद के प्रमोन की भरसक कोशि‍श की लेकिन कामयाबी नहीं मिली।आर्थिक अभाव के कारण मूलचंद अपने पुत्रों को अच्छी शि‍क्षा दिलवाने में असमर्थ है।