मेलबर्न --६ ,परदेश में हिंदी की जंग ने देश में राष्ट्रीय भाषा होते हुए भी हिंदी को अपनी लड़ाई लड़नी पड़ रही है. यह हेरत की बात है लेकिन खुशी की नहीं .पर मेलबर्न में हिंदी की लड़ाई की खबर सुन मुझे हेरत भी हुई और खुशी भी.पैसा ,सेहत और सम्मान की खोज में भारतीय विदेश में बस रहे है. प्रतिभा और लगन इसे लोगों की मदद कर रही है .विदेश में बसने के 10-१५ वर्ष निकलने पर सब को अपनों की याद सताती है . शुरू के साल शानदार जीवन जीने में निकल जाते हैं. लेकिन सब कुछ पाने के बाद अचनक दुनिया सुनी सुनी सी लगती है और यादें पीछा करती हैं. इस बात का आभाष मुझे मेलबर्न में बसे भारतीयों से बात करने के बाद हुआ.
वतन के प्रति निष्ठा एक भले इंसान में जीवन परियन्त रहती है.वतन से दूर रहकर यह निष्ठा और मजबूत होती है.धीरे धीरे यह निष्ठा उसका बल बनती है. मेलबर्न के भारतीय अपने देश पर आई विपिदा के लिए मदद के हाथ हमेशा बढ़ाते रहे है. यही हाल भाषा के प्रति उनकी ममता का है.कई भारतियों ने काव्य संध्या के बहाने आपस में एकदूसरे की लिखी कविताओं को सुनाने का सिलसिला शुरू किया है.लखनऊ के दिनेश मोहन श्रीवास्तव हिंदी पुष्प नाम से मासिक पत्र निकालतेहैं.बेरोवी मेलबर्न से ३० किलोमीटर दूर सवा लाख लोगो का
उपनगर है. यहाँ रहने वाले अनिल शर्मा इंडिया एट मेलबर्न नाम से साप्ताहिक पत्र निकालते हैं .मेरे एक फ़ोन पर मुलाक़ात के लिए तेयार हो गए .सुभाष शर्मा अलीगढ के है. ३० साल से है. हिंदी की कविता करते हैं और हिंदी प्रेमिओं को एक सूत्र में बाँध रखा है .ये लोग हिंदी की लड़ाई मेलबर्न में लड़ रहे हैं.इन लोगों ने स्कूलों में हिन्दी भाषा को पाट्यक्रम में शामिल करने की जंग छेड़ रखी है.विक्टोरिया सरकार ने एक स्तर पर बात मानते हुए कुछ स्कूलों में इसे पढाना शुरू तो कर दिया है लेकिन हिंदी को रास्ट्रीय पाठयक्रम में शामिल करने की मांग ये लोग बनाए हुए हैं .जिस देश में हिंदी का नामोनिशान न हो वहां कुछ कंठ हिंदी जाप करें ,यह जानकारी १२००० की.मी. दूर मेरा कलेजा चोडा करने वाली है.
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