अभिनन्दन बनाम श्राध्द
चचा सुखराम के दिमाग में एक गजब का विचार कौंधा है। वह अपना अभिनन्दन ग्रन्थ खुद ही तैयार करने में जुट गए हैं। ग्रन्थ की मोटी-मोटी बातें उन्होंने चाची के साथ बथुआ का परांठा खाते-खाते तैयार कर ली हैं। ग्रन्थ 'कलरफुल' होगा, बढ़िया कागज और पृष्ठों की संख्या भी भरपेट। तीन खण्डों में बटे 'सुखराम अभिनन्दन ग्रन्थ' में कृतित्व और ‘श्हर के इतिहास का विस्तृत रोजनामचा होगा।
चचा पैंसठ के लपेटे में हैं। जिन्दगी के लम्बे सफर में चचा का सामाजिक योगदान और बहुआयामी व्यक्तित्व किसी से कम नहीं है।
खबरची पुराने हैं वे। मुहल्ले में चाकू चला नहीं अखबार वालों को खबर देने में चचा ने कभी देर नहीं की। धीरे-धीरे अखबार वालों के खास बनते ही चचा मौखिक सूचना देने के स्थान पर खुद ही लिखने लगे और पत्रकारिता के पायदान पर पैर जमा दिए। शहर की सभा, सोसाइटी, कवि गोष्ठी में अग्रपंक्ति में चचा सदैव बैठते रहे हैं।
26 जनवरी की बात है। बच्चों के स्कूल में मुख्य अतिथि नहीं आए। आकाश में बंधा तिरंगा फहराने को मचल रहा था। धोती कुर्ता जाकेट में अग्रपंक्ति में डटे थे सुखराम।
प्रिंसीपल को इससे बढ़िया दूसरा स्वतंत्रता सैनानी दिखाई नहीं दिया। माइक पर नाम पुकारते ही चचा उठे और झंडे की डोरी खींच दी। सलामी देने में चचा को असीम आनन्द की अनुभूति हुई।
चचा की कल्पना की गति जेट विमान से तेज है। झंडे की डोरी खींचते ही चचा स्वतंत्रता सैनानी बन गए। उन्हें नहीं मालूम है कि उनकी तीन पीढ़ियों में कोई जेल गया हो या किसी ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ नारेबाजी की हो। लेकिन कल्पना के रथ बैठे वे सन् 42 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में शरीक हो गए। थाने का घिराव किया। पुलिस ने डण्डे बरसाए। चचा के दाऐं टखने पर चोट का निशान है। चचा को याद है कि यह निशन बचपन में साइकिल से गिरने का है। चचा को अब यह निशान सन् 1942 का बताना पड़ रहा है। स्वतंत्रता सैनानी जो हैं। चचा ने योजना बना ली है कि अभिनन्दन ग्रन्थ के व्यक्तित्व वाले खण्ड में यह सूचनाऐं पाठकों का ज्ञानवर्ध्दन करेंगी।
चचा टेंशन में हैं आजकल। हमने दबी जुबान से पूछा 'चचा! आप 'सुखराम अभिनन्दन ग्रन्थ' की तैयारी कैसे कर रहे हैं ?' चचा बोले 'भतीजे ! तुझसे कुछ नहीं छुपांऊंॅगा। कुछ लेख तो खुद ही लिख लिए हैं। कुछ मित्रों से लिखवा रहा हॅू। लोगों को मेरे बारे में याद नहीं रहा सो विस्तृत बायोडाटा छपवा लिया है। एक लेख तुमको लिखना है। तुम मेरे सामाजिक व मानवीय गुणों को रेखांकित करो। जैसे-सड़क पर पड़े केले के छिलकों को फेंकने और किसी अन्धे की बांह पकड़ सड़क पार कराने की मेरी पुरानी आदत। मेरे विनम्र स्वर और गांधी भक्त होने को हाईलाइट करो। मेरे संपर्कों में गांधी, नेहरू को छोड़कर दूसरे नेताओं से मेरे रिस्तों का हवाला दे सकते हो। तुम लिख दो .......... मैं एडिट कर लूॅगा।'
चचा ने बकायदा 'अभिनन्दन ग्रन्थ समिति' बनाई है। लेटर हैड छपवाए हैं। चचा चन्दा करने में माहिर हैं। सो उगाही भी चल रही है। चचा के कदमों में गजब की तेजी है।
कुंऐ में पैर लटकाए बैठे चचा सुखराम और अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने के विराट सपने के लिए की जाने वाली उनकी अटूट मेहनत को देख मैं हैरत में हॅू। अचानक पूछ बैठा, 'इतना श्रम क्यों - किसलिए ?' चचा गहरी निश्वा स छोड़ते दयनीय स्वरों में बोले, 'पिछले दिनों सुनामी और फिर कशमीर में हुई बर्फबारी ने कलेजे में धुक-धुक कर दी है। यकीन होने लगा है कि पृथ्वी पर बिगड़ते संतुलन से गुस्साई प्रकृति काली माँ बन गई है। क्या मालूम कल कौन सा घर दब जाए, किसकी इहलीला समाप्त हो जाए। ऐसे में बेहतर है अपना श्राध्द खुद कर जाओ। भतीजे ! अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना इसी श्राध्द की एक कड़ी है।' मैं निषब्दं चचा को टुकुर-टुकुर निहार रहा हूँ।
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Sunday, March 28, 2010
Friday, March 19, 2010
एक विधायक की आत्मकथा
यह दुनिया बडी निर्मम है। इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई और किसी ने 'उफ्' तक नहीं की। देश् के किसी कोने से एक भी संवेदना संदेष भेजे जाने का कोई समाचार मीडिया वालों ने इतनी खबर दी कि राज्यपाल लोटा सिंह ने लुढ़का दी। घटना विहार में घटी लेकिन वैचारिक लुढ़का-पुढ़की यू.पी. के विधायक रामलाल के मन में हो रही है।
सब तरफ भाई-भाई का नारा लग रहा है। हिन्दी-चीनी भाई-भाई, अफसर-अफसर भाई-भाई। व्यापारी एकता जिन्दाबाद। षिक्षक अपनी मागें मनवाने के लिए एक दूसरे का हाथ थामे खड़े रहते हैं फिर विधायक-विधायक भाई-भाई क्यों नहीं हो सकते हैं। वे चाहे किसी प्रान्त के हों या किसी दल की टिकट पर जीते हों। कहलाते तो विधायक ही हैं। वेतन, भत्ता, सुविधा, खाने कमाने के अवसर तो एक जैसे हैं। टनाटन सफेदी जैसी एक
जीवन षैली है, एक सोच है, एक मकसद है और वह है 'स्व-सेवा'। राष्ट्र ही विधायक है, विधायक ही राष्ट्र है। बेचारे षपथ भी न ले पाए थे कि लुढ़का दी। चुनाव के तत्काल बाद विधानसभा भंग हो जाती तो भी ठीक था। हरी झण्डी दिखाने में दिल्ली ने राज्यपाल को तीन माह लगा दिए। दो-तीन महीने में जो मीठे सपने देखे वह तो न देखते। विधायक रामलाल भावनाओं में बहे जा रहे हैं। उनका विचार मंथन जैसे-जैसे गंभीर होता है उनके सीने की बांई तरफ टीसें बढ़ती जा रही हैं।
बड़ी मुष्किल, थुक्का फजीहती और मारा-मारी के बाद टिकिट की जुगत लगाओ और फिर ऐरेगैरे, नथ्थू गैरों के सामने हाथ जोड़ वोटों की भीख मांगो। वोट पड़ने से पहले की रात सारे ऐब करो, तब जाकर चुनाव जीतो। गले में माला पड़ गईं, विजय पर्व मन गया। गहरी नींद से जगे तो मालूम पड़ा कि लोटा सिंह ने बड़ी निर्ममता से लुढ़का दी। भगवान ऐसा बुरा हाल किसी विधायक का न करे। विधायक बने भी और न भी।
कहावत है कि पका आम ही धरती पर गिरता है लेकिन बिहार में विधानसभा चुनावों में जीते प्रतिनिधि बिना भाव, वेवक्त और बिना पके ही धड़ाम से टपक पड़े। पहली बार विधायक रामलाल ने पके आम वाली कहावत को चरितार्थ नहीं चकनाचूर होते देखा।
धरती बिहार की हिली है लेकिन हिचकोले यू.पी के विधायक रामलाल को लगे हैं। संवेदनश्ील हैं बेचारे। दहशत सी पैदा हो गई है कलेजे में। सत्ता में हो या विरोध में, मुख्यमंत्री अच्छा करे या बुरा, सरकार 5 वर्ष चलनी चाहिए। अब पार्टियों में समझदारी विकसित हो रही है। सभी ने आपस में गुप्त समझौता कर लिया है। -'सरकार गिराने की धमकी देते रहो, गिराओ मत।'
विधायक रामलाल के मन में संभावित होनी अनहोनी का चित्र घूम ही रहा था कि बचपन के मित्र ने उनके कमरे में प्रवेश किया। दु:खी आत्मा रामलाल का लटका मुंह देख मित्र बोले, 'रामलाल जी ! किशन चंदर की पुस्तक 'एक गधे की आत्मकथा' आपने पढ़ी है क्या ! यदि नहीं पढ़ी तो पढ़ लो। इसी शैली में एक विधायक की आत्मकथा लिख डालो। हम मदद करेंगे आपकी। पुस्तक में ईमानदारी से विधायकों की किस्में, उनकी कार्यश्ैली, जीवनषैली, उनके अनुभव आदि का विवरण लिख देना। पुस्तक 'बैस्ट सेलर' बनेगी।
विधायक रामलाल को मित्र का सुझाव पसन्द आया। वह पुस्तक का मसौदा तैयार करने में जुट गए हैं। यदि बिहार की तरह राज्यपाल यू.पी. में भी लुढ़का दें तो कोई चिन्ता नहीं। एक लेखक के रूप में रामलाल की प्रतिष्ठा तो बनी रहेगी।
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यह दुनिया बडी निर्मम है। इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई और किसी ने 'उफ्' तक नहीं की। देश् के किसी कोने से एक भी संवेदना संदेष भेजे जाने का कोई समाचार मीडिया वालों ने इतनी खबर दी कि राज्यपाल लोटा सिंह ने लुढ़का दी। घटना विहार में घटी लेकिन वैचारिक लुढ़का-पुढ़की यू.पी. के विधायक रामलाल के मन में हो रही है।
सब तरफ भाई-भाई का नारा लग रहा है। हिन्दी-चीनी भाई-भाई, अफसर-अफसर भाई-भाई। व्यापारी एकता जिन्दाबाद। षिक्षक अपनी मागें मनवाने के लिए एक दूसरे का हाथ थामे खड़े रहते हैं फिर विधायक-विधायक भाई-भाई क्यों नहीं हो सकते हैं। वे चाहे किसी प्रान्त के हों या किसी दल की टिकट पर जीते हों। कहलाते तो विधायक ही हैं। वेतन, भत्ता, सुविधा, खाने कमाने के अवसर तो एक जैसे हैं। टनाटन सफेदी जैसी एक
जीवन षैली है, एक सोच है, एक मकसद है और वह है 'स्व-सेवा'। राष्ट्र ही विधायक है, विधायक ही राष्ट्र है। बेचारे षपथ भी न ले पाए थे कि लुढ़का दी। चुनाव के तत्काल बाद विधानसभा भंग हो जाती तो भी ठीक था। हरी झण्डी दिखाने में दिल्ली ने राज्यपाल को तीन माह लगा दिए। दो-तीन महीने में जो मीठे सपने देखे वह तो न देखते। विधायक रामलाल भावनाओं में बहे जा रहे हैं। उनका विचार मंथन जैसे-जैसे गंभीर होता है उनके सीने की बांई तरफ टीसें बढ़ती जा रही हैं।
बड़ी मुष्किल, थुक्का फजीहती और मारा-मारी के बाद टिकिट की जुगत लगाओ और फिर ऐरेगैरे, नथ्थू गैरों के सामने हाथ जोड़ वोटों की भीख मांगो। वोट पड़ने से पहले की रात सारे ऐब करो, तब जाकर चुनाव जीतो। गले में माला पड़ गईं, विजय पर्व मन गया। गहरी नींद से जगे तो मालूम पड़ा कि लोटा सिंह ने बड़ी निर्ममता से लुढ़का दी। भगवान ऐसा बुरा हाल किसी विधायक का न करे। विधायक बने भी और न भी।
कहावत है कि पका आम ही धरती पर गिरता है लेकिन बिहार में विधानसभा चुनावों में जीते प्रतिनिधि बिना भाव, वेवक्त और बिना पके ही धड़ाम से टपक पड़े। पहली बार विधायक रामलाल ने पके आम वाली कहावत को चरितार्थ नहीं चकनाचूर होते देखा।
धरती बिहार की हिली है लेकिन हिचकोले यू.पी के विधायक रामलाल को लगे हैं। संवेदनश्ील हैं बेचारे। दहशत सी पैदा हो गई है कलेजे में। सत्ता में हो या विरोध में, मुख्यमंत्री अच्छा करे या बुरा, सरकार 5 वर्ष चलनी चाहिए। अब पार्टियों में समझदारी विकसित हो रही है। सभी ने आपस में गुप्त समझौता कर लिया है। -'सरकार गिराने की धमकी देते रहो, गिराओ मत।'
विधायक रामलाल के मन में संभावित होनी अनहोनी का चित्र घूम ही रहा था कि बचपन के मित्र ने उनके कमरे में प्रवेश किया। दु:खी आत्मा रामलाल का लटका मुंह देख मित्र बोले, 'रामलाल जी ! किशन चंदर की पुस्तक 'एक गधे की आत्मकथा' आपने पढ़ी है क्या ! यदि नहीं पढ़ी तो पढ़ लो। इसी शैली में एक विधायक की आत्मकथा लिख डालो। हम मदद करेंगे आपकी। पुस्तक में ईमानदारी से विधायकों की किस्में, उनकी कार्यश्ैली, जीवनषैली, उनके अनुभव आदि का विवरण लिख देना। पुस्तक 'बैस्ट सेलर' बनेगी।
विधायक रामलाल को मित्र का सुझाव पसन्द आया। वह पुस्तक का मसौदा तैयार करने में जुट गए हैं। यदि बिहार की तरह राज्यपाल यू.पी. में भी लुढ़का दें तो कोई चिन्ता नहीं। एक लेखक के रूप में रामलाल की प्रतिष्ठा तो बनी रहेगी।
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Thursday, March 18, 2010
बूढों की बैठक
देश के सीनियर सिटीजन का दर्द मुझे भी सालता है। सरकार एवं अनेक स्वयंसेवी संस्थाएे बूढ़ों की हिफाजत के लिए विचार गोष्ठियां आयोजित कर रही हैं। अनेक समाजसेवी बूढ़ों की सेवा के नाम पर गेस्ट हाउस खोलकर धनोपार्जन कर रहे हैं। ये समाजसेवी अपने गेस्ट हाउस को 'ओल्ड एज होम' का नाम दे गणतन्त्र दिवस पर पद्मश्री जैसे सम्मान पाने की जुगत में हैं।
पुराने जमाने के ऋिषियों-मुनियों ने इंसान की 100 वर्ष की उम्र मान इसे चार भागों में बांटकर जीने की कला का संदेश दिया था। हमारी सरकार ने इसे दो भागों में बांट दिया है। साठ से पहले और साठ के बाद। सरकारी नीतियों के षिकार बने इन बूढ़ों को अपना रिटायरमेन्ट दूध में गिरी मक्खी को निकाल देना जैसा लगता है। जवानी में ये बूढ़े सोचते थे कि साठ साल के होने पर शायद कोई स्पेशल कमजोरी आती होगी, तभी सरकार रिटायर करती है। लेकिन साठ साल के अन्दर बूढ़े अपने षरीर के अन्दर के रसायन पूर्ववत काम करते देखते हैं। उन्हें सरकार की इस नीति पर कभी क्रोध आता है तो कभी हैरत होती है। उन्हें लगता है कि उन्हें फिजूल में रिटायर कर दिया गया। बस इसी विचार के बाद बूढ़ों और जवानों में जबरदस्त खाई खुद जाती है।
पिछले दिनों मेरी गली के चार बूढ़ों ने अपात बैठक बुलाकर तय किया कि सरकार और नौजवानों से रोने-धोने, गिड़गिड़ाने आदि से न तो कोई सुविधा मिलेगी और न ही बाकी दिन कटेंगे। इस पहाड़ जैसी जिन्दगी को अपने तरीके से काटना होगा। चारों बूढ़े इस आइडिया पर एक मत हुए कि शाम के वक्त सभी एक साथ घर के आगे सड़क पर बैठेंगे। तीन-चार घण्टे मौज-मस्ती में गुजरेंगे। बीच-बीच में चाय-चुल्लड़ होगी। आदर्श,नैतिकता जैसे उबाऊ विषयों पर आपस में बातचीत नहीं होगी पर यदि कोई राहगीर भूले भटके अपने पास कुछ पल को ठहर जाऐ तो आदर्ष, नैतिकता, महाभारत, रामायण, वर्तमान समय में मूल्यों का अवमूल्यन आदि विषयों पर ही अपनी बातचीत केन्द्रित की जाऐगी। चारों बूढ़े बैठक में लिए फैसलों पर बेहद मगन है।
तिवारी जी चारों बूढ़ों में सीनियरमोस्ट हैं। उनके घर के बाहर लगे गुलमोहर के वृक्ष के पास शाम होते ही चारों बूढ़े आ धमकते हैं।
आज पहली बैठक थी। बैठक के सामने सड़क के दूसरी ओर रोजमर्रा के सामान की किराने की दुकान है। कालोनी वालों को इस दुकान से बहुत सुविधा है। महिलाऐं अपनी 'कम्फर्टेबिल ड्रेस' में हल्दी, नमक, धनियाँ, बिस्किट, ब्रेड आदि खरीदने आ जाती हैं। बूढ़ों को यह दृश्ये बहुत भाता है।
किसी महिला को सामान खरीदते देख बूढ़े अपना समान्य ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। किसकी बहू है, किस शहर की है, कितने बच्चे हैं आदि की जानकारी आपस में बाट लेते हैं। त्यागी जी के बेटे की बहू है, चार साल षादी को हो गए पर बाल-गोपाल कोई नहीं जैसी आपसी जानकारी पर बूढ़े हैरत में पड़ जाते हैं। वे कोई ऊॅंच नीच होने की श्ंाका जाहिर करते हैं। एक बूढ़ा इस चर्चा को विराम देने की नीयत से कहता है कि 'पत्नी से पता करूॅंगा'। इसी तरह अनेक प्र' बैठक में अनुत्तरित रह जाते हैं। वे अगले दिन सुलझा लिए जाते हैं।
कभी-कभी ये बूढ़े सामान लेकर सामने से गुजरती महिला से घर-गृहस्थी से जुडे सवालों के बहाने बतिया भी लेते हैं। बेहद सम्मान और विनम्रता से पेश् आती ये महिला इन सीनियर सिटीजनों के रोम-रोम को कुछ क्षंण के लिए पुलकित कर देती हैं।
कहते हैं कि हमारी खुश्ी हमारे कामों को गति देती है। यही वजह है कि बूढ़ों की राह गुजरती महिलाओं से बतियाबन कर खीसें निपोरने की आदत पड़ गई है। बूढ़ों के दाँतों और घुटनों के दर्द मानो उडनछू हो गए हैं। कब्ज भी जाती रही है। लेकिन इन बूढ़ों को मोहल्ले की महिलाओं के कष्ट का तनिक भी अाभास नहीं। 'कम्फर्टेबिल ड्रेस' में किराने का सामान खरीदना इन महिलाओं के लिए अब दूभर हो गया है। ये महिलाऐं शाम को बूढ़ों की बैठक जमे, इससे पहले ही सौदा खरीदने या पड़ौसन से बतियाने जैसा काम निपटा लेती हैं। बैठक के वक्त महिलाओं ने सड़क पर चलना बन्द कर दिया है ा महिलाओं की अनुपस्थिति बूढ़ों को अन्दर ही अन्दर कचौट रही है। यह दर्द घुटनों के दर्द से बड़ा है पर कहें तो कैसे कहें और किससे कहें !
महिलाओं के नदारत होने पर बूढोंं ने राह गुजरते बच्चों से दोस्ती करने की सोची। उन्होंने खेलने जाते बच्चों से देश्-दुनिया के सामान्य ज्ञान के सवालों को पूछना श्ुरू किया। एक दिन तिवारी जी ने एक बालक से बडेृ दुलार से बात करनी चाही तो वह 'मम्मी बुला रही कहकर अदृश्यी हो गया।
इस बालक ने अपने दोस्तों को बूढ़ों की बैठक की खबर दे दी। नतीजा यह है कि बूढ़े अब सन्नाटे में बैठे हैं। गली का दुकानदार भी बूढ़ों को तिरछी नजर से देखने लगा है। उसकी दुकानदरी आधी रह गई है।
आजकल मेरी गली के सीनियर सिटीजनों को गठिया, दांत का दर्द और कब्ज ज्यादा सताने लगी है। ये बूढ़े अब बात कम कर, बाबा रामदेव की कपालभाती और अनुलोम-विलोम में ज्यादा रूचि ले रहे हैं।
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देश के सीनियर सिटीजन का दर्द मुझे भी सालता है। सरकार एवं अनेक स्वयंसेवी संस्थाएे बूढ़ों की हिफाजत के लिए विचार गोष्ठियां आयोजित कर रही हैं। अनेक समाजसेवी बूढ़ों की सेवा के नाम पर गेस्ट हाउस खोलकर धनोपार्जन कर रहे हैं। ये समाजसेवी अपने गेस्ट हाउस को 'ओल्ड एज होम' का नाम दे गणतन्त्र दिवस पर पद्मश्री जैसे सम्मान पाने की जुगत में हैं।
पुराने जमाने के ऋिषियों-मुनियों ने इंसान की 100 वर्ष की उम्र मान इसे चार भागों में बांटकर जीने की कला का संदेश दिया था। हमारी सरकार ने इसे दो भागों में बांट दिया है। साठ से पहले और साठ के बाद। सरकारी नीतियों के षिकार बने इन बूढ़ों को अपना रिटायरमेन्ट दूध में गिरी मक्खी को निकाल देना जैसा लगता है। जवानी में ये बूढ़े सोचते थे कि साठ साल के होने पर शायद कोई स्पेशल कमजोरी आती होगी, तभी सरकार रिटायर करती है। लेकिन साठ साल के अन्दर बूढ़े अपने षरीर के अन्दर के रसायन पूर्ववत काम करते देखते हैं। उन्हें सरकार की इस नीति पर कभी क्रोध आता है तो कभी हैरत होती है। उन्हें लगता है कि उन्हें फिजूल में रिटायर कर दिया गया। बस इसी विचार के बाद बूढ़ों और जवानों में जबरदस्त खाई खुद जाती है।
पिछले दिनों मेरी गली के चार बूढ़ों ने अपात बैठक बुलाकर तय किया कि सरकार और नौजवानों से रोने-धोने, गिड़गिड़ाने आदि से न तो कोई सुविधा मिलेगी और न ही बाकी दिन कटेंगे। इस पहाड़ जैसी जिन्दगी को अपने तरीके से काटना होगा। चारों बूढ़े इस आइडिया पर एक मत हुए कि शाम के वक्त सभी एक साथ घर के आगे सड़क पर बैठेंगे। तीन-चार घण्टे मौज-मस्ती में गुजरेंगे। बीच-बीच में चाय-चुल्लड़ होगी। आदर्श,नैतिकता जैसे उबाऊ विषयों पर आपस में बातचीत नहीं होगी पर यदि कोई राहगीर भूले भटके अपने पास कुछ पल को ठहर जाऐ तो आदर्ष, नैतिकता, महाभारत, रामायण, वर्तमान समय में मूल्यों का अवमूल्यन आदि विषयों पर ही अपनी बातचीत केन्द्रित की जाऐगी। चारों बूढ़े बैठक में लिए फैसलों पर बेहद मगन है।
तिवारी जी चारों बूढ़ों में सीनियरमोस्ट हैं। उनके घर के बाहर लगे गुलमोहर के वृक्ष के पास शाम होते ही चारों बूढ़े आ धमकते हैं।
आज पहली बैठक थी। बैठक के सामने सड़क के दूसरी ओर रोजमर्रा के सामान की किराने की दुकान है। कालोनी वालों को इस दुकान से बहुत सुविधा है। महिलाऐं अपनी 'कम्फर्टेबिल ड्रेस' में हल्दी, नमक, धनियाँ, बिस्किट, ब्रेड आदि खरीदने आ जाती हैं। बूढ़ों को यह दृश्ये बहुत भाता है।
किसी महिला को सामान खरीदते देख बूढ़े अपना समान्य ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। किसकी बहू है, किस शहर की है, कितने बच्चे हैं आदि की जानकारी आपस में बाट लेते हैं। त्यागी जी के बेटे की बहू है, चार साल षादी को हो गए पर बाल-गोपाल कोई नहीं जैसी आपसी जानकारी पर बूढ़े हैरत में पड़ जाते हैं। वे कोई ऊॅंच नीच होने की श्ंाका जाहिर करते हैं। एक बूढ़ा इस चर्चा को विराम देने की नीयत से कहता है कि 'पत्नी से पता करूॅंगा'। इसी तरह अनेक प्र' बैठक में अनुत्तरित रह जाते हैं। वे अगले दिन सुलझा लिए जाते हैं।
कभी-कभी ये बूढ़े सामान लेकर सामने से गुजरती महिला से घर-गृहस्थी से जुडे सवालों के बहाने बतिया भी लेते हैं। बेहद सम्मान और विनम्रता से पेश् आती ये महिला इन सीनियर सिटीजनों के रोम-रोम को कुछ क्षंण के लिए पुलकित कर देती हैं।
कहते हैं कि हमारी खुश्ी हमारे कामों को गति देती है। यही वजह है कि बूढ़ों की राह गुजरती महिलाओं से बतियाबन कर खीसें निपोरने की आदत पड़ गई है। बूढ़ों के दाँतों और घुटनों के दर्द मानो उडनछू हो गए हैं। कब्ज भी जाती रही है। लेकिन इन बूढ़ों को मोहल्ले की महिलाओं के कष्ट का तनिक भी अाभास नहीं। 'कम्फर्टेबिल ड्रेस' में किराने का सामान खरीदना इन महिलाओं के लिए अब दूभर हो गया है। ये महिलाऐं शाम को बूढ़ों की बैठक जमे, इससे पहले ही सौदा खरीदने या पड़ौसन से बतियाने जैसा काम निपटा लेती हैं। बैठक के वक्त महिलाओं ने सड़क पर चलना बन्द कर दिया है ा महिलाओं की अनुपस्थिति बूढ़ों को अन्दर ही अन्दर कचौट रही है। यह दर्द घुटनों के दर्द से बड़ा है पर कहें तो कैसे कहें और किससे कहें !
महिलाओं के नदारत होने पर बूढोंं ने राह गुजरते बच्चों से दोस्ती करने की सोची। उन्होंने खेलने जाते बच्चों से देश्-दुनिया के सामान्य ज्ञान के सवालों को पूछना श्ुरू किया। एक दिन तिवारी जी ने एक बालक से बडेृ दुलार से बात करनी चाही तो वह 'मम्मी बुला रही कहकर अदृश्यी हो गया।
इस बालक ने अपने दोस्तों को बूढ़ों की बैठक की खबर दे दी। नतीजा यह है कि बूढ़े अब सन्नाटे में बैठे हैं। गली का दुकानदार भी बूढ़ों को तिरछी नजर से देखने लगा है। उसकी दुकानदरी आधी रह गई है।
आजकल मेरी गली के सीनियर सिटीजनों को गठिया, दांत का दर्द और कब्ज ज्यादा सताने लगी है। ये बूढ़े अब बात कम कर, बाबा रामदेव की कपालभाती और अनुलोम-विलोम में ज्यादा रूचि ले रहे हैं।
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ओ0पी0आई
सत्तर बसन्त देख चुके चचा के सर के बाल सन जैसे सफेद हैं। एक दिन एक पड़ौसी ने हवेली की ढयोड़ी पर बैठे चचा के बालों की सफेदी की वजह पूछी। चचा बोले- 'बेटा ! ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए। चचा की बात पडौसी की समझ में नहीं आई। उसने अपने मित्र को पूरा वाक्या सुनाया। मित्र चचा की फितरत से वाकिफ था। उसे मालूम था कि पिछले एक साल से चचा ने अपनी बातचीत का तौर-तरीका बदल लिया है। वह सीधे-साधे सवालों के आड़े तिरछे जबाव देते हैं। मित्र ने पड़ौसी को समझाया कि चचा का मतलब है कि उनके सन जैसे बाल अनुभव रूपी ज्ञान की निशानी है। अर्थ समझ कर पड़ौसी चचा की बुध्दि का कायल हो गया।
बुध्दि के मामले में चचा ने एक भी क्षेत्र में गच्चा नहीं खाया है। पड़ौसी को बातचीत में मजा आने लगा। उसने दूसरा सवाल दागा, 'चचा तुम बीजेपी में रहे, कांग्रेस में गए, माया और मुलायम सभी के आंगन में टहल आए हो। आजकल किस पार्टी में हो! चचा तपाक से बोले, 'ओ.पी.आई.।'
बम्पर गैद की तरह चचा की बात पड़ौसी के सर के ऊपर से फिर निकल गई। पड़ौसी बेचारा फिर सकते में। वातावरण में चुप्पी छाई रही। पड़ौसी अंग्रेजी के तीन अक्षर ओ
पी.आई. से क्या बनता है का अर्थ लगाने में माथापच्ची करता रहा लेकिन उसकी अक्ल जबाब दे गई। चचा ने तब ओ.पी.आई. का अर्थ बताया 'ओपोरच्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इ्रंडिया।' यानी 'भारत की अवसरवादी पार्टी।'
कामयाबी का फंडा बताते चचा ने कहा राजनिति में एक की कंठी लेने से जिन्दगी नहीं चलती। जैसा देष वैसा भेष की नीति सबसे अच्छी है। अपुन सभी दलों में टहल आए है। सभी दलों का एक जैसा हाल है। कुछ नेता मजे में हैं और ज्यादातर लोग घुटन भरी जिन्दगी जी रहे हैं। ये बडे नेता अपने कार्यकर्ताओं को पार्टी के प्रति वफादारी का पाठ पढाते नहीं थकते। सार्वजनिक मंच पर ये नेता विरोधी दल के नेताओं की बधिया उधेड़कर एक दूसरे के जानी दुष्मन होने का संदेष जनता को देते हैं। लेकिन निजी जीवन में रात के अंधेरे में ये नेता आपस में ऐसे मिलते हैं जैसे चोर-चोर मौसेरे भाई। इन नेताओं के झूठ-सच का सही अनुमान वोटर नहीं लगा पाता। झूठ पकड़ा न जाए इसके लिए इन नेताओं को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। नेताओं को हिसाब रखना पड़ता है कि पहले क्या कहा था।
बस इन्हीं सब झंझटों को देखकर हमने अपनी नई पार्टी 'ओ.पी.आई.' बनाई है। हमारी पार्टी के कुछ प्रमुख नारे हैं- 'अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता', 'चढ़ते सूरज को प्रणाम', 'डूबते जाहज को अलविदा', 'तैरते जहाज में छलांग', आदि , दल बदल कानून का विरोध करना अपुन की पार्टी का प्रमुख ऐजेन्डा है।
ओ.पी.आई. के संविधान की खूबी यह है कि कोई भी सदस्य किसी अन्य दल में मनचाहे दिनों के लिए कभी भी आ जा सकता है। वह दूसरे दल में भले ही रहे, ओ.पी.आई.से उसकी सदस्यता समाप्त नहीं होगी। चचा ने अपनी इस पार्टी की एक अन्य विशेष्ताभ बताते हुए कहा कि अन्य दलों के लोगों को मुंह में राम बगल में छुरी की नीति अपना कर दो-दो मुखौटे अपने पास रखने पड़ते हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत ओ.पी.आई. के सदस्यों को अपने असवरवाद को छुपाने के लिए किसी ढ़ोंग की जरूरत नहीं।
इंदिरा गांधी जैसे कद्दावर वृक्ष के गिरने के बाद धरती हिली। मसलन, दंगे फसाद हुए, बाबरी मस्जिद टूटी, गोधरा कांड हुआ, गुजरात में मोदी की प्रयोगशाला बनी। इन सब कमों को अंजाम देने बाले बेचारे नेता 'मैं नहीं' 'मैं नहीं' कहते घूम रहे हैं।
'ओ.पी.आई.' पार्टी की नीति-रीति एक है यानि दो टूक जुबान। ईमानदारी इसकी आधाराश्ला है। हम जो हैं वो हैं। दुराव-छपाव की कोई जरूरत नहीं। तभी तो पार्टी कार्यकर्ता अपने दिन की श्रूआत इस नारे से करते हैं - 'गर्व से बोलो ओ.पी.आई'।
चचा के मकान पर ओ.पी.आई. का झंडा लहर-लहर लहरा रहा है। ओ.पी.आई. पार्टी के झंडे की तरफ बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी, एसपी, सीपीएम, सीपीआई आदि दलों के झंडे ललचाई नजर से देख रहे हैं। चचा के झंडे को मांगने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है।
सत्तर बसन्त देख चुके चचा के सर के बाल सन जैसे सफेद हैं। एक दिन एक पड़ौसी ने हवेली की ढयोड़ी पर बैठे चचा के बालों की सफेदी की वजह पूछी। चचा बोले- 'बेटा ! ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए। चचा की बात पडौसी की समझ में नहीं आई। उसने अपने मित्र को पूरा वाक्या सुनाया। मित्र चचा की फितरत से वाकिफ था। उसे मालूम था कि पिछले एक साल से चचा ने अपनी बातचीत का तौर-तरीका बदल लिया है। वह सीधे-साधे सवालों के आड़े तिरछे जबाव देते हैं। मित्र ने पड़ौसी को समझाया कि चचा का मतलब है कि उनके सन जैसे बाल अनुभव रूपी ज्ञान की निशानी है। अर्थ समझ कर पड़ौसी चचा की बुध्दि का कायल हो गया।
बुध्दि के मामले में चचा ने एक भी क्षेत्र में गच्चा नहीं खाया है। पड़ौसी को बातचीत में मजा आने लगा। उसने दूसरा सवाल दागा, 'चचा तुम बीजेपी में रहे, कांग्रेस में गए, माया और मुलायम सभी के आंगन में टहल आए हो। आजकल किस पार्टी में हो! चचा तपाक से बोले, 'ओ.पी.आई.।'
बम्पर गैद की तरह चचा की बात पड़ौसी के सर के ऊपर से फिर निकल गई। पड़ौसी बेचारा फिर सकते में। वातावरण में चुप्पी छाई रही। पड़ौसी अंग्रेजी के तीन अक्षर ओ
पी.आई. से क्या बनता है का अर्थ लगाने में माथापच्ची करता रहा लेकिन उसकी अक्ल जबाब दे गई। चचा ने तब ओ.पी.आई. का अर्थ बताया 'ओपोरच्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इ्रंडिया।' यानी 'भारत की अवसरवादी पार्टी।'
कामयाबी का फंडा बताते चचा ने कहा राजनिति में एक की कंठी लेने से जिन्दगी नहीं चलती। जैसा देष वैसा भेष की नीति सबसे अच्छी है। अपुन सभी दलों में टहल आए है। सभी दलों का एक जैसा हाल है। कुछ नेता मजे में हैं और ज्यादातर लोग घुटन भरी जिन्दगी जी रहे हैं। ये बडे नेता अपने कार्यकर्ताओं को पार्टी के प्रति वफादारी का पाठ पढाते नहीं थकते। सार्वजनिक मंच पर ये नेता विरोधी दल के नेताओं की बधिया उधेड़कर एक दूसरे के जानी दुष्मन होने का संदेष जनता को देते हैं। लेकिन निजी जीवन में रात के अंधेरे में ये नेता आपस में ऐसे मिलते हैं जैसे चोर-चोर मौसेरे भाई। इन नेताओं के झूठ-सच का सही अनुमान वोटर नहीं लगा पाता। झूठ पकड़ा न जाए इसके लिए इन नेताओं को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। नेताओं को हिसाब रखना पड़ता है कि पहले क्या कहा था।
बस इन्हीं सब झंझटों को देखकर हमने अपनी नई पार्टी 'ओ.पी.आई.' बनाई है। हमारी पार्टी के कुछ प्रमुख नारे हैं- 'अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता', 'चढ़ते सूरज को प्रणाम', 'डूबते जाहज को अलविदा', 'तैरते जहाज में छलांग', आदि , दल बदल कानून का विरोध करना अपुन की पार्टी का प्रमुख ऐजेन्डा है।
ओ.पी.आई. के संविधान की खूबी यह है कि कोई भी सदस्य किसी अन्य दल में मनचाहे दिनों के लिए कभी भी आ जा सकता है। वह दूसरे दल में भले ही रहे, ओ.पी.आई.से उसकी सदस्यता समाप्त नहीं होगी। चचा ने अपनी इस पार्टी की एक अन्य विशेष्ताभ बताते हुए कहा कि अन्य दलों के लोगों को मुंह में राम बगल में छुरी की नीति अपना कर दो-दो मुखौटे अपने पास रखने पड़ते हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत ओ.पी.आई. के सदस्यों को अपने असवरवाद को छुपाने के लिए किसी ढ़ोंग की जरूरत नहीं।
इंदिरा गांधी जैसे कद्दावर वृक्ष के गिरने के बाद धरती हिली। मसलन, दंगे फसाद हुए, बाबरी मस्जिद टूटी, गोधरा कांड हुआ, गुजरात में मोदी की प्रयोगशाला बनी। इन सब कमों को अंजाम देने बाले बेचारे नेता 'मैं नहीं' 'मैं नहीं' कहते घूम रहे हैं।
'ओ.पी.आई.' पार्टी की नीति-रीति एक है यानि दो टूक जुबान। ईमानदारी इसकी आधाराश्ला है। हम जो हैं वो हैं। दुराव-छपाव की कोई जरूरत नहीं। तभी तो पार्टी कार्यकर्ता अपने दिन की श्रूआत इस नारे से करते हैं - 'गर्व से बोलो ओ.पी.आई'।
चचा के मकान पर ओ.पी.आई. का झंडा लहर-लहर लहरा रहा है। ओ.पी.आई. पार्टी के झंडे की तरफ बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी, एसपी, सीपीएम, सीपीआई आदि दलों के झंडे ललचाई नजर से देख रहे हैं। चचा के झंडे को मांगने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है।
Tuesday, March 16, 2010
अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता
चचा सुखराम की स्कूली शिक्षा न के बराबर है लेकिन उनका दिमाग गजब की विश्लेषण क्षमता रखता है। यही कारण है कि उनके इर्दगिर्द पढ़ेलिखों की भीड़ सदैव रहती है। बहुत सी बातें बहुतों की समझ में नहीं आती पर इहें समझना चचा के लिए मानो बच्चों का खेल है।खचाखच भरी बैठक में कहावतों पर बात चल रही थी। चचा का कहना था का शानदार और जानदार कहावतों को गढ़ने वाले विद्वान ही नहीं होते बल्कि बिना डिग्री वाले लोग कहावतों को जन्म देकर समज को रोशनी दिखाते हैं।
इसके बाद चचा मुख्य बात पर आए। बोले- 'मैंने अपने इलाके के विधायक पिद्दीलाल से पूछा कि तुम अपनी जनता से वोट बड़ी विनम्रता से माँगते हो, षानदार जीत हासिल करते हो लेकिन कुर्सी मिलते ही ऐसे ऑंखें फेर लेते हो जैसे जानते ही नहीं।' इस पर विधायक जी बोले- 'देखो चचा ! चुनाव में वोटर हमारी बड़ी दुर्गति करता है। हम घर-घर जाते हैं, हाथ जोड़ते हैं, पैर पकड़ते हैं। किसी को चाची, किसी को माताजी,किसी को बहनजी तो किसी को बूआजी कहकर अपनी जुबान सुखाते हैं तब जाकर उनके कलेजे में समाकर जीत हासिल करते हैं।छोटीसी मषीन का नन्हा सा बटन दबाने में वोटर की मानो नानी मरती है। चचा ! अब आप ही बताओ। एक भलामानस हारने पर गाली देगा और जीतने पर मुंह फेरेगा कि नहीं। अपुन का सिध्दान्त है 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।'
विधायक पिद्दी की कहावत में तर्क की कोई कमी नहीं थी सभी को भाया। चचा बोले-'एक किस्सा और सुनो। '
यह बात उच्च शिक्षा के कामयाब दुकानदार की है। कई इंजीनियरिंग कालेज का मालिक है वह। विधायक पिद्दी का यार है सो उसकी कहावत को सीने से लगाए फिरता है। एक दिन बोला कि ' मैं अपने कालेज में 7-8 हजार में मास्टर रखता हूं। ये मास्टर 4-5 वर्ष में तरक्की पाकर 13-14 हजार तक पहुँच जाते हैं। तब मास्टरों का यह वेतन मेरी आंखों में खटकने लगता है। उन्हें नौकरी से निकालने का फैसला कर लेता हूँ। कालेज से निकालने से 6 माह पूर्व उसकी कमियां निकालना, मीमो थमाना, डांटना-डपटना षुरू कर देता हूं। इतना टेंशन देता हूं कि वह खुद बखुद इस्तीफा देकर नौ-दो ग्यारह हो जाता है। उसके जाने के बाद मैं उसकी जगह 7-8 हजार पर फिर से नियुक्ति कर लेता हूं। यह सब 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता' के सिध्दान्त पर करता हूँ।
चचा ने अफसरों, अपने नजदीकी रिश्तेदारों, पड़ोसियों, मित्रों के ऐसे अनेक किस्से सुनाए जो विधायक पिद्दी की कहावत पर अमल कर तरक्की की चौपड़ पर कुलांचें मार रहे हैं। बैठक में बैठे कई लोग पछता रहे थे कि विधायक पिद्दी को उन्होंने गुरू क्यों नहीं बनाया। चचा ने अपनी वाणी को विराम इस नैतिक सलाह से दी- 'निजी उत्थान करना है तो उठते-बैठते इस कहावत का जाप करो और मिलजुल कर समाज का भला करना है तो जैसे वैष्णों देवी के दर्षन के लिए चढ़ाई करते भक्तजन उद्धोष करते हैं 'जोर से बोलो जय माता की ', वैसे ही सुबह पार्क में और षाम को गली मोहल्लों में नारे लगाओ, 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।'
इसके बाद चचा मुख्य बात पर आए। बोले- 'मैंने अपने इलाके के विधायक पिद्दीलाल से पूछा कि तुम अपनी जनता से वोट बड़ी विनम्रता से माँगते हो, षानदार जीत हासिल करते हो लेकिन कुर्सी मिलते ही ऐसे ऑंखें फेर लेते हो जैसे जानते ही नहीं।' इस पर विधायक जी बोले- 'देखो चचा ! चुनाव में वोटर हमारी बड़ी दुर्गति करता है। हम घर-घर जाते हैं, हाथ जोड़ते हैं, पैर पकड़ते हैं। किसी को चाची, किसी को माताजी,किसी को बहनजी तो किसी को बूआजी कहकर अपनी जुबान सुखाते हैं तब जाकर उनके कलेजे में समाकर जीत हासिल करते हैं।छोटीसी मषीन का नन्हा सा बटन दबाने में वोटर की मानो नानी मरती है। चचा ! अब आप ही बताओ। एक भलामानस हारने पर गाली देगा और जीतने पर मुंह फेरेगा कि नहीं। अपुन का सिध्दान्त है 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।'
विधायक पिद्दी की कहावत में तर्क की कोई कमी नहीं थी सभी को भाया। चचा बोले-'एक किस्सा और सुनो। '
यह बात उच्च शिक्षा के कामयाब दुकानदार की है। कई इंजीनियरिंग कालेज का मालिक है वह। विधायक पिद्दी का यार है सो उसकी कहावत को सीने से लगाए फिरता है। एक दिन बोला कि ' मैं अपने कालेज में 7-8 हजार में मास्टर रखता हूं। ये मास्टर 4-5 वर्ष में तरक्की पाकर 13-14 हजार तक पहुँच जाते हैं। तब मास्टरों का यह वेतन मेरी आंखों में खटकने लगता है। उन्हें नौकरी से निकालने का फैसला कर लेता हूँ। कालेज से निकालने से 6 माह पूर्व उसकी कमियां निकालना, मीमो थमाना, डांटना-डपटना षुरू कर देता हूं। इतना टेंशन देता हूं कि वह खुद बखुद इस्तीफा देकर नौ-दो ग्यारह हो जाता है। उसके जाने के बाद मैं उसकी जगह 7-8 हजार पर फिर से नियुक्ति कर लेता हूं। यह सब 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता' के सिध्दान्त पर करता हूँ।
चचा ने अफसरों, अपने नजदीकी रिश्तेदारों, पड़ोसियों, मित्रों के ऐसे अनेक किस्से सुनाए जो विधायक पिद्दी की कहावत पर अमल कर तरक्की की चौपड़ पर कुलांचें मार रहे हैं। बैठक में बैठे कई लोग पछता रहे थे कि विधायक पिद्दी को उन्होंने गुरू क्यों नहीं बनाया। चचा ने अपनी वाणी को विराम इस नैतिक सलाह से दी- 'निजी उत्थान करना है तो उठते-बैठते इस कहावत का जाप करो और मिलजुल कर समाज का भला करना है तो जैसे वैष्णों देवी के दर्षन के लिए चढ़ाई करते भक्तजन उद्धोष करते हैं 'जोर से बोलो जय माता की ', वैसे ही सुबह पार्क में और षाम को गली मोहल्लों में नारे लगाओ, 'अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता।'
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