रामदेव जी! सिर्फ पैसे से नहीं आयेगी खुशहाली
अशोक बंसल
स्वकस्थ’ रहने के लिए योग जरूरी का सार्थक प्रचार कर अपने नाम की शोहरत बटोर चुके बाबा रामदेव अब देश की जर्जर काया का कल्प करने का ब्रत ले बैठे हैं । बाबा ने मान लिया है कि सफेदपोश नेताओं के आगे उपदेश की ढपली बजाकर देश में खुशहाली लाना बेमानी है। भारत स्वाेभिमान जवान संस्था का गठन कर बाबा देश प्रेम का अलख जगाने में जुट गये हैं। उहोंने देश वासियों के बीच स्विस बैंकों में जमा काले धन को स्वदेश लाने के सवाल को मुद़दा बनाया है ।बाबा की जुबान पर देश के काले धन के चौकाने वाले आंकडे हैं। मसलन स्विस बैंक में हमारे देश के नेता, व्याापारियों और अधिकारियों के तीन सौ लाख करोड की रकम काले धन के रूप में जमा है। इस धन को वापस लोने में मौजूदा सरकार कोई पहल नहीं कर रही है। अत्- अगले चुनाव में भारत स्वानभिमान जवान के लोग संसद में पहुंच कर सत्ताे की बागडोर सभालेंगे और स्विस बैंक में जमा काले धन को वापस लाकर देश को खुशहाल बनायेगे ।
राजनैतिक व आर्थिक चिंतन से शून्य बाबा की रणनीति संसद में अपने समर्थ्कों को भेजवाने में कामयाब हो पायेगी, यदि हां तो उनके समर्थक स्विस बैंक में जमा पैसे को देश में वापस ला पायंगे कि नहीं। यदि हां तो इस पैसे से देश की गरीबी कैसे दूर होगी, मजदूर किसान और वेरोजगार कैसे खुशहाल होंगे आदि प्रश्नों के उत्तदर बाबा के पास नहीं है । आजादी के बाद सत्ता् संभालने वाले नेता मजदूर किसानों को सब्ज बाग दिखाकर सत्ता पर बार बार काबिज होने के गुर सीख गये हैं । सत्तातधरियों की गरीबी तो दूर हो गयी है लेकिन देश में भूख से मरने वालों की उपस्थिति आज भ्ी बनी हुई है । ऐसा नहीं कि हमारे प्रजातांत्रिक देश के संविधान में सबकुछ गडबड है । संविधान में बर्णित सारे कायदे कानून दुरूस्त है लेकिन सस्ताा पर काबिज नेता और इसकी चाहत में इर्दगिर्द घूमने वाले सफेद पोशों की फौज संविधान की रक्षा में नहीं बल्कि इसे ध्वेस्त करने में लगी है ।
ऐसे में बाबा और उनके अनुयायियों को समझना होगा कि हमारे देश में खुशहाली लाने का इलाज महज सत्ताा परिवर्तन नहीं बल्कि सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ व्यापक जन आन्दोलन की शुरूआत करना है । बाबा रामदेव ने योग को प्रचारित करने में पांच वर्ष से जयादा का वक्त लगाया तब उन्हें हमारे मानस पर योग की सता काबिज करने में कामयाबी मिली1 सिर्फ राजनैतक ताकत हासिल कर देश की गरीबी और भ्ुखमरी दूर करने का बाबा का सपना कैसे सच सावित होगा । इस प्रश्न का उत्तर बाबा रामदेव के समर्थकों को देना होगा। क्या ही अच्छा हो यदि बाबा देश में मौजूदा भ्रष्टाकचार, अशिक्षा, अन्धविश्वाास आदि कुरीतियों के विरूद्व व्याापक और दीर्घ आन्दोलन की रूपरेखा बनायें। सम्भ व हे बाबा का यह आन्दोलन करोडों दिशाहीन युवकाें को सही रास्ता दिखाने का काम करे । मथुरा के बाबा जयगुरूदेव ने भी बाबा रामदेव की तर्ज पर दूरदर्शी पार्टी का गठन कर राजनीति में दस्ताक दी थी । सतयुग आयेगा और कलयुग जायेगा के लोकप्रिय नारे ने बाबा जयगुरूदेव के भक्तों की संख्या में जबरदस्त इजाफा किया था। बाबा की दूरदर्शी पार्टी ने उत्तर प्रदेश की सभ्ी सीटो पर चुनाव लडा लेकिन जबरदस्त निराशा हाथ लगी 1 तब बाबा ने राजनीति एक वैश्या है कहकर दूरदर्शी पार्टी को भंग कर दिया। अब उन्हों ने अपने प्रवचनों को आध्यात्म और समाज सेवा तक ही सीमित कर रखा है। बाबा जयगुरूदेव के आश्रम पर साल में लगने वाले कई विशाल भण्उारो में लाखों की भीड; आज जुटती हैा इन भण्डागरों में दहेज रहित विवाह को बाबा बढावा देते हैं ।बाबा विवादों से दूर हैं।
अंत में, बाबा रामदेव के सत्ता् में आने के सपने सच हो या न हो पर इतना निश्चि त है कि बाबा के राजनीति में आने के प्रयास का लाभ कोई एक राजनैतिक पार्टी उठायेगी। बाबा रामदेव के हाथ वैसी ही निराशा हाथ लगेगी जैसे कि बाबा जयगुरूदेव को किसी वक्त लगी थी ।
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Thursday, May 27, 2010
Monday, May 24, 2010
स्वर्ग की सीढ़ियों पर नरक की
परछाइयां
धार्मिक भावनाओं की तुष्टि के सिलसिले में वृंदावन का नाम कुछ ज्यादा ही श्रद्धा से लिया जाता है । बंगाल में तो बहुत पहले से मान्यता रही है कि स्वर्ग के दरवाजे पर दस्तक वृंदावन में रहकर ही दी जा सकती है । वैधव्य की आपदाओं से घिरी बंगाली स्त्रियों को बाकी जीवन के लिए वृंदावन एक जैसे ताकत देता रहा है । यही कारण है कि वृंदावन में बंगाली विधवाओं की उपस्थिति एक शताब्दी से लगातार बनी हुई है । ये विधवाऐं यहॉं स्वर्ग की आस लिए आती हैं और इसी आस के सहारे सारा जीवन नारकीय यातनाओं को भोगते गुजार देती हैं । इन अनपढ़, सीधी-सच्ची और दुखी औरतौं को इस बात का तनिक आभास नहीं होता कि उनकी वर्तमान हालत पुराने जन्मों के पापों का फल न होकर सुनयोजित ढंग से धर्म के नाम पर खड़े किए गए आडबंर के कारण है । वृंदावन में बंगाली विधवाओं की स्थिति एक बार जाल में फंसने के बाद कभी न निकलने वाली मछली की मानिद है ।
घटती-बढ़ती तकरीबन तीन हजार की गिनती में हमेशा बने रहने वाली विधवाओं के दुख-दर्द की कहानी वृंदावन के एक आश्रम से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ी है । वृंदावन के पत्थरपुरा इलाके में इस आश्रम की स्थापना 1914 में जानकीदास पटोरिया नाम के सेठ ने की थी । ‘भगवान भजनाश्रम’ नाम के इस आश्रम की स्थापना बंगाली बाइयों को अनैतिक काम में पड़ने से रोकने और जीवन यापन की व्यवस्था करने जैसे पवित्र उद्देश्य को लेकर की गई थी । विधवाओं के नाम पर आने वाली दान की रकम कीे नाम मात्र की पूंजी से खड़े किए भजनाश्रम का अरबों का बना दिया है । वृंदावन के अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल आदि स्थानों पर भजनाश्रम की शाखाऐं जड़ जमा चुकी हैं ा चित्रकूट के पास नवद्वीप और बंबई में भी आश्रम की अथाह संपति है । दूसरी ओर भजन करने वाली बाइयों की हालत इतनी दयनीय है कि पत्थर भी पिघल जाए ।
आठ घंटे मजीरे पीट-पीट कर मुक्त कंठ से ‘हरे राम राम राम हरे हरे’ का उद्घोषण करने के बाद एक बाई को ढाई सौ ग्राम चावल और एक रुपए की आश्रम मुद्रा की मुद्रा मिलती है ।
इंसान का वर्तमान जितना कष्टप्रद और असुरक्षित हो, भविष्य की असुरक्षा का भय उसे उतना ही सताता है । सतरह साल की जवान बाई से लेकर अस्सी साल की लाठी के बल पर चलने वाली या सड़क पर घिसटने वाली विकलांग बाई तक सभी ढ़ाई सौ ग्राम चावल पेट में झोंक कर जिंदा रहतीं हैं और एक रुपया बचा लेती हैं । सेवा कुंज, मदन मोहन का घेरा और गोविंद जी के घेरे में बनी कभी भी गिरने वाली अंधेरी, सीलन भरी और बदबूदार कोठरियों में सात-सात, आठ-आठ की संख्या में ठुसी बाइयां अपनी अमूल्य निधि ‘एक रुपए’ को रखने का सुरक्षित स्थान नहीं ढूंढ़ पाती । वे आश्रम के बाबूओं के पास ब्याज के लालच में इस रकम को जमा कराती रहती हैं । बाइयों के आगे-पीछे कोई होता नहीं, सो बाई के मरने बाद उसका धन भी छूट जाता है । अनेक बाइयां वृंदावन पलायन करते समय साथ में लाई हुई पूंजी भी ब्याज पर उठा देती हैं । शाम के वक्त वृंदावन में मंदिरों के आगे इन्हीं बाइयों को भिक्षावृति करते देखा जा सकता है । इस भिक्षावृति के पीछे संचय की प्रवृति भी है ।
बाईयॉं सुबह 10 बजे जब भजनाश्रम से अपनी कोठरियों की ओर कूच करती है तो रास्ते में पड़े झूठे पत्ते उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते । अस्थिपंजर बने रुग्ण शरीर उन्हें चाटने लगते हैं । बाइयों को आश्रम के कर्मचारी भी प्रताड़ित करने से पीछे नहीं रहते । एक बार एक बुढ़िया बाई को आश्रम की सीढ़ियों से केवल इसलिए धकिया दिया गया कि वह भजन के लिए कुछ देर से आई थी । रक्तरंजित बाई मिन्नतों और गिड़गिड़ाने के बाद भी आश्रम में प्रवेश न पा सकी। उस दिन उसे बिना चावल के ही गुजारा करना पड़ा । अमानवीयता और अत्याचार की मिलीजुली संस्कृति ने आश्रम के प्रति बंधुआ मजदूरों का सा भय और आंतक इन निरपराध बाइयों के मन में भर दिया है । आश्रम के कर्मचारियों के घरों का काम, सफाई, झूठे बर्तन साफ करना आदि भी इन्हीं बाइयों से लिया जाता है । इसके लिए उसे अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता । ‘भजनाश्रम’ के पास अपना एक आयुर्वेद संस्थान भी है जिसमें करीब चालीस दवाएं बनती हैं । दवाओं के कूटने, शीशियों में भरने और पैकिंग करने आदि का काम इन्हीं बाइयों से लिया जाता है ।
समूचे देश के दानदाता भजनाश्रम की बाइयों के लिए हजारों रुपए के हिसाब से भेज रहे हैं । इसके अलावा सावन और फागुन के महीने में मारवाड़ी लोग वृंदावन आते हैं तो हजारों की रकम आश्रम को दान कर जाते हैं ा कंबल, रजाई आदि बांटने के लिए दे जाते हैं । बीस साल से वृंदावन में रह रही दो बाइयों ने बताया कि उन्हें आज तक कोई रजाई या कंबल नहीं दिया गया । वृंदावन में स्थित फोगला आश्रम भी भजनाश्रम की एक शाखा है । साल में चार महीने इस आश्रम में रोजाना चलने वाली रासलीला में हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं । आयोजक घड़े लेकर रासलीला के खत्म होने पर चढ़ावे के लिए जनता के बीच निकलते हैं । कहते हैं करीब तीस-चालीस हजार की रकम रोजाना इकट्ठी हो जाती है । फोगला आश्रम के अतिरिक्त भजनाश्रम की दो बड़ी-बड़ी इमारतें और भी हैं-- खेतावत भवन और वैश्य भवन । इन भवनों में बने आलीशान कमरे दानदाता सेठों के आने पर ही खुलते हैं लेकिन प्रचारित यह किया जाता है कि यह भवन बाइयों के लिए बनाए गए हैं ।
एक धर्मिक नगर में लोग बाइयों के हक में आवाज उठाने को तैयार नहीं है । महानगरों में नारी-शोषण के खिलाफ प्रदर्शन होना एक आम बात है । लेकिन वृंदावन की बाइयों के हक की आवाज उठाने की सुध् किसी को नहीं । वृंदावन की बाइयों की व्यथा पर कथा लिखने वालों की कमी नहीं रही। समय-समय पर देशी-विदेशी कैमरे इन बाइयों के चित्र उतारते रहते हैं । सामाजिक संगठन इनकी दुर्दशापर कभी-कभी चर्चा भी करते देखे गए हैं लेकिन स्वर्ग की आस में नरक जैसा जीवन जीने वाली बेसहारा औरतों को सहारा देने वाला कोई नहीं ।
परछाइयां
धार्मिक भावनाओं की तुष्टि के सिलसिले में वृंदावन का नाम कुछ ज्यादा ही श्रद्धा से लिया जाता है । बंगाल में तो बहुत पहले से मान्यता रही है कि स्वर्ग के दरवाजे पर दस्तक वृंदावन में रहकर ही दी जा सकती है । वैधव्य की आपदाओं से घिरी बंगाली स्त्रियों को बाकी जीवन के लिए वृंदावन एक जैसे ताकत देता रहा है । यही कारण है कि वृंदावन में बंगाली विधवाओं की उपस्थिति एक शताब्दी से लगातार बनी हुई है । ये विधवाऐं यहॉं स्वर्ग की आस लिए आती हैं और इसी आस के सहारे सारा जीवन नारकीय यातनाओं को भोगते गुजार देती हैं । इन अनपढ़, सीधी-सच्ची और दुखी औरतौं को इस बात का तनिक आभास नहीं होता कि उनकी वर्तमान हालत पुराने जन्मों के पापों का फल न होकर सुनयोजित ढंग से धर्म के नाम पर खड़े किए गए आडबंर के कारण है । वृंदावन में बंगाली विधवाओं की स्थिति एक बार जाल में फंसने के बाद कभी न निकलने वाली मछली की मानिद है ।
घटती-बढ़ती तकरीबन तीन हजार की गिनती में हमेशा बने रहने वाली विधवाओं के दुख-दर्द की कहानी वृंदावन के एक आश्रम से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ी है । वृंदावन के पत्थरपुरा इलाके में इस आश्रम की स्थापना 1914 में जानकीदास पटोरिया नाम के सेठ ने की थी । ‘भगवान भजनाश्रम’ नाम के इस आश्रम की स्थापना बंगाली बाइयों को अनैतिक काम में पड़ने से रोकने और जीवन यापन की व्यवस्था करने जैसे पवित्र उद्देश्य को लेकर की गई थी । विधवाओं के नाम पर आने वाली दान की रकम कीे नाम मात्र की पूंजी से खड़े किए भजनाश्रम का अरबों का बना दिया है । वृंदावन के अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल आदि स्थानों पर भजनाश्रम की शाखाऐं जड़ जमा चुकी हैं ा चित्रकूट के पास नवद्वीप और बंबई में भी आश्रम की अथाह संपति है । दूसरी ओर भजन करने वाली बाइयों की हालत इतनी दयनीय है कि पत्थर भी पिघल जाए ।
आठ घंटे मजीरे पीट-पीट कर मुक्त कंठ से ‘हरे राम राम राम हरे हरे’ का उद्घोषण करने के बाद एक बाई को ढाई सौ ग्राम चावल और एक रुपए की आश्रम मुद्रा की मुद्रा मिलती है ।
इंसान का वर्तमान जितना कष्टप्रद और असुरक्षित हो, भविष्य की असुरक्षा का भय उसे उतना ही सताता है । सतरह साल की जवान बाई से लेकर अस्सी साल की लाठी के बल पर चलने वाली या सड़क पर घिसटने वाली विकलांग बाई तक सभी ढ़ाई सौ ग्राम चावल पेट में झोंक कर जिंदा रहतीं हैं और एक रुपया बचा लेती हैं । सेवा कुंज, मदन मोहन का घेरा और गोविंद जी के घेरे में बनी कभी भी गिरने वाली अंधेरी, सीलन भरी और बदबूदार कोठरियों में सात-सात, आठ-आठ की संख्या में ठुसी बाइयां अपनी अमूल्य निधि ‘एक रुपए’ को रखने का सुरक्षित स्थान नहीं ढूंढ़ पाती । वे आश्रम के बाबूओं के पास ब्याज के लालच में इस रकम को जमा कराती रहती हैं । बाइयों के आगे-पीछे कोई होता नहीं, सो बाई के मरने बाद उसका धन भी छूट जाता है । अनेक बाइयां वृंदावन पलायन करते समय साथ में लाई हुई पूंजी भी ब्याज पर उठा देती हैं । शाम के वक्त वृंदावन में मंदिरों के आगे इन्हीं बाइयों को भिक्षावृति करते देखा जा सकता है । इस भिक्षावृति के पीछे संचय की प्रवृति भी है ।
बाईयॉं सुबह 10 बजे जब भजनाश्रम से अपनी कोठरियों की ओर कूच करती है तो रास्ते में पड़े झूठे पत्ते उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते । अस्थिपंजर बने रुग्ण शरीर उन्हें चाटने लगते हैं । बाइयों को आश्रम के कर्मचारी भी प्रताड़ित करने से पीछे नहीं रहते । एक बार एक बुढ़िया बाई को आश्रम की सीढ़ियों से केवल इसलिए धकिया दिया गया कि वह भजन के लिए कुछ देर से आई थी । रक्तरंजित बाई मिन्नतों और गिड़गिड़ाने के बाद भी आश्रम में प्रवेश न पा सकी। उस दिन उसे बिना चावल के ही गुजारा करना पड़ा । अमानवीयता और अत्याचार की मिलीजुली संस्कृति ने आश्रम के प्रति बंधुआ मजदूरों का सा भय और आंतक इन निरपराध बाइयों के मन में भर दिया है । आश्रम के कर्मचारियों के घरों का काम, सफाई, झूठे बर्तन साफ करना आदि भी इन्हीं बाइयों से लिया जाता है । इसके लिए उसे अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता । ‘भजनाश्रम’ के पास अपना एक आयुर्वेद संस्थान भी है जिसमें करीब चालीस दवाएं बनती हैं । दवाओं के कूटने, शीशियों में भरने और पैकिंग करने आदि का काम इन्हीं बाइयों से लिया जाता है ।
समूचे देश के दानदाता भजनाश्रम की बाइयों के लिए हजारों रुपए के हिसाब से भेज रहे हैं । इसके अलावा सावन और फागुन के महीने में मारवाड़ी लोग वृंदावन आते हैं तो हजारों की रकम आश्रम को दान कर जाते हैं ा कंबल, रजाई आदि बांटने के लिए दे जाते हैं । बीस साल से वृंदावन में रह रही दो बाइयों ने बताया कि उन्हें आज तक कोई रजाई या कंबल नहीं दिया गया । वृंदावन में स्थित फोगला आश्रम भी भजनाश्रम की एक शाखा है । साल में चार महीने इस आश्रम में रोजाना चलने वाली रासलीला में हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं । आयोजक घड़े लेकर रासलीला के खत्म होने पर चढ़ावे के लिए जनता के बीच निकलते हैं । कहते हैं करीब तीस-चालीस हजार की रकम रोजाना इकट्ठी हो जाती है । फोगला आश्रम के अतिरिक्त भजनाश्रम की दो बड़ी-बड़ी इमारतें और भी हैं-- खेतावत भवन और वैश्य भवन । इन भवनों में बने आलीशान कमरे दानदाता सेठों के आने पर ही खुलते हैं लेकिन प्रचारित यह किया जाता है कि यह भवन बाइयों के लिए बनाए गए हैं ।
एक धर्मिक नगर में लोग बाइयों के हक में आवाज उठाने को तैयार नहीं है । महानगरों में नारी-शोषण के खिलाफ प्रदर्शन होना एक आम बात है । लेकिन वृंदावन की बाइयों के हक की आवाज उठाने की सुध् किसी को नहीं । वृंदावन की बाइयों की व्यथा पर कथा लिखने वालों की कमी नहीं रही। समय-समय पर देशी-विदेशी कैमरे इन बाइयों के चित्र उतारते रहते हैं । सामाजिक संगठन इनकी दुर्दशापर कभी-कभी चर्चा भी करते देखे गए हैं लेकिन स्वर्ग की आस में नरक जैसा जीवन जीने वाली बेसहारा औरतों को सहारा देने वाला कोई नहीं ।
Wednesday, May 12, 2010
वृन्दावन का प्रेम महाविद्यालय वर्बादी के कगाार पर
अशोक बंसल
मथुरा से 11 कि.मी. दूर वृन्दावन में यमुना किनारे स्थित ‘प्रेम महाविद्यालय’ आज पूरी तरह तहस-नहस है। एक शताब्दी पुराना यह विद्यालय इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। गुलामी के वक्त बिट्रिश हुकूमत के वायसराय लार्ड रीडिंग तक की आँखों की किरकिरी बना ‘प्रेम महाविद्यालय’ की प्रत्येक ईंट आजादी के दीवानों के त्याग तपस्या की मूक गवाह है। साथ ही, यह महाविद्यालय वर्तमान में जिला विद्यालय निरीक्षक तथा चन्द शिक्षकों की अर्थलिप्सा और भ्रष्ट आचारण पर आँसू भी बहा रहा है। विद्यालय में वास्तव में एक भी छात्र दिखाई न देने के बावजूद यहाँ तैनात शिक्षकों को वेतन मिल रहा है।
एक मायने में किसी गौरवशाली संग्रहालय की साख वाले इस विद्यालय की स्थापना २४ मई १९0९ में क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने की थी। मदन मोहन मालवीय ने इस विद्यालय की पहली ईंट रखी। लाखों रूपये की सम्पत्ति को विद्यालय के नाम करने वाले अद्भुत राजा महेन्द्र प्रताप का सोच था कि उनका ‘प्रेम महाविद्यालय’ छात्रों को स्वदेश और समाजसेवा का पाठ पढ़ायेगा। आजादी मिलने तक राजा के सपने सच हुए लेकिन आजादी के बाद प्रतापी राजा को निराशा हाथ लगी।
वृन्दावन के प्रेम महाविद्यालय की कीर्ति सम्पूर्ण देश में फैली। नतीजतन, महामना मदन मोहन मालवीय का पेूम इस विद्यालय से लम्बे समय तक रहा। महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, लाला हंसराज, सुभाष चन्द्र बोस, सी.एफ. एण्डूज, रवीन्द्रनाथ टेगौर, सरोजनी नायडू सरीखे जाने-माने नाम प्रेम महाविद्यालय को देखने वृन्दावन आये और विद्यालय की हस्ताक्षर पंजिका में अपनी-अपनी प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ दर्ज की। १४ अप्रैल १९१५ को महात्मा गाँधी ने अपना पूरा दिन इस विद्यालय में बिताया। इस विद्यालय की लोकप्रियता के किस्सों की फहरिस्त लम्बी है।
हाथरस जिले की मुरसान रियासत के राजा महेन्द्र प्रताप के हृदय में स्वाधीनता का विचार हिलोरें ले रहा था। विद्यालय का काम काज अपने साथियों को सौंप राजा साहब 20 दिसम्बर १९१४ को विदेश चले गये। ३२ वर्ष बाद वे १९४६ में वापस आये। इस दौरान प्रेम महाविद्यालय काँग्रेसियों और क्रान्तिकारियों की शरणस्थली बना। १९२१ के इस विद्यालय के छात्र-शिक्षकों ने कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा लिया। १९२९ में कुछ माह के अन्तराल से गाँधी और नेहरू के वृन्दावन के इस विद्यालय में आने की तारीखें दर्ज हैं। १९२१ में राजा विदेश में रूस, जापान, जर्मनी की विशिष्ठ हस्तियों से मेलजोल बढ़ा देश को स्वाधीन बनाने की योजनाओं में लिप्त थे। रूस में लेनिन ने राजा महेन्द्र प्रताप को मुलाकात का निमन्त्रण दिया ा इधर भारत में वायसराय लार्ड रीडिंग ने राजा और प्रेम महाविद्यालय की सम्पत्ति को जब्त करने की योजना बनायी, लेकिन डॉ. तेज बहादुर सप्रू जो लार्ड रीडिंग की कार्यकारी काँसिल के कानूनी सलाहकार थे, ने प्रेम महाविद्यालय की पैरवी की और इसे बन्द होने से बचाया। १९३२ में एक बार फिर मथुरा के कलेक्टर डब्लू.सी. डायविल ने प्रेम महाविद्यालय को निशाना बनाया। विद्यालय ६ वर्ष तक बन्द रहा लेकिन मथुरा-वृन्दावन में मौजूद राष्ट्रप्रेमियों ने इस विद्यालय को फिर से जीवन्त बनाया। १९३८ में आचार्य नरेन्द्र देव इस विद्यालय की प्रबन्ध समिति के सदस्य बने। नरेन्द्र देव ने शिक्षा को विस्तार देते हुए पॉलीटैक्निक महाविद्यालय की स्थापना की ा मथुरा-वृन्दावन रोड पर स्थित यह महाविद्यालय प्रारम्भ में प्रसिद्ध रहा लेकिन अब इसकी कीर्ति शनै-शनै धूमिल हो गयी है।
१९५७ में दूसरी लोकसभा में राजा महेन्द्र प्रताप मथुरा से सांसद बने। १९७८ में उनका निधन हुआ। तब तक प्रेम महाविद्यालय में पढ़ाई-लिखाई होती रही लेकिन राजा साहब के निधन के बाद विद्यालय को स्थानीय और बाहरी सभी भूल गये। पिछले दिनों वृन्दावन में कुछ इतिहास प्रेमियों ने ‘प्रेम महाविद्यालय पुर्नजन्म उत्सव’ मनाया। राजा साहब के कृतित्व-व्यक्तित्व का स्मरण किया गया लेकिन कागजों पर चलने वाले इस विद्यालय में प्राण फँूकने की कोई गम्भीर योजना न बन सकी।
मथुरा के पुरातत्व व इतिहास प्रेमी हुकुमचन्द्र तिवारी का कहना है कि शिक्षा माफियाओं के फलने-फूलने वाले इस युग में ‘प्रेम महाविद्यालय’ को चलाना नामुमाकिन है लेकिन इस विद्यालय को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर इसे एक आकर्षक संग्रहालय में तब्दील किया जा सकता है।
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अशोक बंसल
मथुरा से 11 कि.मी. दूर वृन्दावन में यमुना किनारे स्थित ‘प्रेम महाविद्यालय’ आज पूरी तरह तहस-नहस है। एक शताब्दी पुराना यह विद्यालय इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। गुलामी के वक्त बिट्रिश हुकूमत के वायसराय लार्ड रीडिंग तक की आँखों की किरकिरी बना ‘प्रेम महाविद्यालय’ की प्रत्येक ईंट आजादी के दीवानों के त्याग तपस्या की मूक गवाह है। साथ ही, यह महाविद्यालय वर्तमान में जिला विद्यालय निरीक्षक तथा चन्द शिक्षकों की अर्थलिप्सा और भ्रष्ट आचारण पर आँसू भी बहा रहा है। विद्यालय में वास्तव में एक भी छात्र दिखाई न देने के बावजूद यहाँ तैनात शिक्षकों को वेतन मिल रहा है।
एक मायने में किसी गौरवशाली संग्रहालय की साख वाले इस विद्यालय की स्थापना २४ मई १९0९ में क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने की थी। मदन मोहन मालवीय ने इस विद्यालय की पहली ईंट रखी। लाखों रूपये की सम्पत्ति को विद्यालय के नाम करने वाले अद्भुत राजा महेन्द्र प्रताप का सोच था कि उनका ‘प्रेम महाविद्यालय’ छात्रों को स्वदेश और समाजसेवा का पाठ पढ़ायेगा। आजादी मिलने तक राजा के सपने सच हुए लेकिन आजादी के बाद प्रतापी राजा को निराशा हाथ लगी।
वृन्दावन के प्रेम महाविद्यालय की कीर्ति सम्पूर्ण देश में फैली। नतीजतन, महामना मदन मोहन मालवीय का पेूम इस विद्यालय से लम्बे समय तक रहा। महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, लाला हंसराज, सुभाष चन्द्र बोस, सी.एफ. एण्डूज, रवीन्द्रनाथ टेगौर, सरोजनी नायडू सरीखे जाने-माने नाम प्रेम महाविद्यालय को देखने वृन्दावन आये और विद्यालय की हस्ताक्षर पंजिका में अपनी-अपनी प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ दर्ज की। १४ अप्रैल १९१५ को महात्मा गाँधी ने अपना पूरा दिन इस विद्यालय में बिताया। इस विद्यालय की लोकप्रियता के किस्सों की फहरिस्त लम्बी है।
हाथरस जिले की मुरसान रियासत के राजा महेन्द्र प्रताप के हृदय में स्वाधीनता का विचार हिलोरें ले रहा था। विद्यालय का काम काज अपने साथियों को सौंप राजा साहब 20 दिसम्बर १९१४ को विदेश चले गये। ३२ वर्ष बाद वे १९४६ में वापस आये। इस दौरान प्रेम महाविद्यालय काँग्रेसियों और क्रान्तिकारियों की शरणस्थली बना। १९२१ के इस विद्यालय के छात्र-शिक्षकों ने कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा लिया। १९२९ में कुछ माह के अन्तराल से गाँधी और नेहरू के वृन्दावन के इस विद्यालय में आने की तारीखें दर्ज हैं। १९२१ में राजा विदेश में रूस, जापान, जर्मनी की विशिष्ठ हस्तियों से मेलजोल बढ़ा देश को स्वाधीन बनाने की योजनाओं में लिप्त थे। रूस में लेनिन ने राजा महेन्द्र प्रताप को मुलाकात का निमन्त्रण दिया ा इधर भारत में वायसराय लार्ड रीडिंग ने राजा और प्रेम महाविद्यालय की सम्पत्ति को जब्त करने की योजना बनायी, लेकिन डॉ. तेज बहादुर सप्रू जो लार्ड रीडिंग की कार्यकारी काँसिल के कानूनी सलाहकार थे, ने प्रेम महाविद्यालय की पैरवी की और इसे बन्द होने से बचाया। १९३२ में एक बार फिर मथुरा के कलेक्टर डब्लू.सी. डायविल ने प्रेम महाविद्यालय को निशाना बनाया। विद्यालय ६ वर्ष तक बन्द रहा लेकिन मथुरा-वृन्दावन में मौजूद राष्ट्रप्रेमियों ने इस विद्यालय को फिर से जीवन्त बनाया। १९३८ में आचार्य नरेन्द्र देव इस विद्यालय की प्रबन्ध समिति के सदस्य बने। नरेन्द्र देव ने शिक्षा को विस्तार देते हुए पॉलीटैक्निक महाविद्यालय की स्थापना की ा मथुरा-वृन्दावन रोड पर स्थित यह महाविद्यालय प्रारम्भ में प्रसिद्ध रहा लेकिन अब इसकी कीर्ति शनै-शनै धूमिल हो गयी है।
१९५७ में दूसरी लोकसभा में राजा महेन्द्र प्रताप मथुरा से सांसद बने। १९७८ में उनका निधन हुआ। तब तक प्रेम महाविद्यालय में पढ़ाई-लिखाई होती रही लेकिन राजा साहब के निधन के बाद विद्यालय को स्थानीय और बाहरी सभी भूल गये। पिछले दिनों वृन्दावन में कुछ इतिहास प्रेमियों ने ‘प्रेम महाविद्यालय पुर्नजन्म उत्सव’ मनाया। राजा साहब के कृतित्व-व्यक्तित्व का स्मरण किया गया लेकिन कागजों पर चलने वाले इस विद्यालय में प्राण फँूकने की कोई गम्भीर योजना न बन सकी।
मथुरा के पुरातत्व व इतिहास प्रेमी हुकुमचन्द्र तिवारी का कहना है कि शिक्षा माफियाओं के फलने-फूलने वाले इस युग में ‘प्रेम महाविद्यालय’ को चलाना नामुमाकिन है लेकिन इस विद्यालय को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर इसे एक आकर्षक संग्रहालय में तब्दील किया जा सकता है।
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विदेशी विश्वविद्यालयों का आगमन
उच्च शिक्षा का विस्तार स्तर की कीमत पर
अशोक बंसल
उच्च शिक्षा के कल्याण के लिये मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा देखे जा रहे सपनों का देश में उच्च पदस्थ बुद्धिजीवी स्वागत कर रहे हैं। ‘विदेशी विश्वविद्यालय बिल’ को मंत्रिमंडल की मंजूरी मिलने के बाद माना जा रहा है कि इस लुभावने बिल को संसद में कम्यूनिस्टों के विरोध के बाबजूद मंजूरी मिल जाएगी। देश में विदेशी शिक्षा संस्थानों को न्यौत कर उच्च शिक्षा को अन्तरराट्रीय स्तर का बना देने का विचार चार वर्ष पुराना हैं लेकिन तब कम्यूनिस्टों के प्रबल विरोध के बाद बात आगे नहीं बढ़ सकी थी। गत वर्ष बिल के पुराने स्वरूप में कुछ जोड़-बाकी कर इसे नए सिरे से तैेेेयार किया गया था ा सत्ता के शीर्श पर बैठे लोग शिक्षा क्षेत्र के विदेशी मेहमानों के स्वागत के लिए पलक पाँवडे बिछाने को तैयार हैं।
विदेशी विश्वविद्यालय बिल के लाभ गिनाते कपिल सिब्बल का कहना है कि अब बढ़िया शिक्षा के लिए स्वदेशी छात्रों (एक वर्ष में करीब एक लाख साठ हजार छात्र विदेश जाते हैं) को यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया नहीं जाना पड़ेगा। इससे विदेशी मुद्रा बचेगी। देश में सरकारी और निजी क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इससे शिक्षा का स्तर भी बेहतर होगा यह बिल संचार क्षेत्र में आई क्रान्ति से बड़ी क्रांति साबित होगा। बिल के प्रशंसकों का कहना है कि वर्तमान में 18-24 वर्ष के नौजवानों का सिर्फ 9 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा केी ओर अग्रसर हो पाता है। विदेशी विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद बढ़ती जनसंख्या को उच्चशिक्षा के रास्ते सुलभ होंगे, शिक्षकों को रोजगार मिलेगा, अन्य देशों के छात्र हमारे यहाँ पढ़ेंगे। इससे विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ेगा। यानि बिल एक और लाभ अनेक।
सच्चाई यह है कि बढ़ती जनसंख्या को देख विभिन्न क्षेत्र के व्यापारियों ने तकनीकी और प्रबन्धन कालेज दुतगति से खोले हैं। विगत एक दशक में अकेले उत्तर प्रदेश में 500 से ज्यादा तकनीकी और प्रबन्धन कालेज खुले हैं।
होटलनुमा इमारतों में चल रहे इन संस्थानों की शिक्षा के शोचनीय स्तर पर विद्वानों की दो राय नहीं हैं। इन संस्थानों से डिग्री प्राप्त कर निकले हजारों इंजीनियर और एम.बी.ए बेरोजगारों की कतार में जा बैठे हैं।
उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की लालसा वाले मंत्री कपिल सिब्बल ने अपने बिल में विदेशी विश्वविद्यालयों पर इस आश्य से अंकुश लगाने के इन्तजाम किए हैं ताकि शिक्षा के स्तर में गिरावट न आए। ऐसे अनेक अंकुष मौजूदा षिक्षा के स्तर को गिरने से रोकने के लिए पहले से बने हैं लेकिन आई आई टी और आई आई एम संस्थानों को छोड़कर अधिकांष षिक्षा संस्थान बिना महाबत के हाथी जैसे अपने मद में मस्त हैं ा
यह कहना गलत न होगा कि बीस वर्षो में उच्च शिक्षा का अच्छा खासा विस्तार हुआ है।स्वतन्त्रता के समय भारत में मात्र 20 विश्वविद्यालय और 500 महाविद्यालय थे। आज तकनीकी व प्रबधन संस्थानों की संख्या हजारों में है। इन संस्थानों को संचालित करने और इनके स्तर को बरकरार रखने के लिए सरकार के पास 13 नियामक संस्थाऐं हैं। क्या ये संस्थायें अपना दायित्व भलीभाँति निभा पा रही हैं? असीमित अधिकार वाली ये संस्थायें भ्रष्टाचार की चपेट में हैं। यू0 जी0 सी0 और अखिल भारतीय तकनीकी संस्थान, जैसी संस्थायें शिक्षा के स्तर पर लगाम न लगा शिक्षा व्यापारियों से मधुर रिश्ते कायम करने में तल्लीन हैं। यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा गठित ज्ञान आयोग ने उच्च शिक्षा क्षेत्र के नियमन के लिए एक स्वतन्त्र नियामक आयोग की स्थापना का सुझाव दिया है। शिक्षा को सही रास्ते पर लाने में नाकामयाब रही ये नियामक संस्थाऐं अपने देश की विदेशी शिक्षा पर कैसे लगाम कस सकेंगी, यह प्रश्न भी गौरतलब है। विश्वविद्यालयों में कुलपति जैसे गरिमामय और अकादमिक उत्कृष्टता वाले पद पर राजनेताओं के हस्तक्षेप ने शिक्षा के स्तर को चौपट किया है। विश्वविद्यालय और महाविद्यालय ज्ञान के केंद्र न होकर राजनीति के आखाड़ों में तबदील हो गये हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि सरकार के पास सब कुछ होते हुए भी उच्च शिक्षा के इन पुराने संस्थानों में सुधार क्यों नहीं हो पा रहा। ऐसे में विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश में कुछ चमत्कार करेंगे, यह सोचना बेमानी होगा।
कपिल सिब्बल ने कहा है विदेश के अन्तरराष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक संस्थान को ही यहाँ विश्वविद्यालय खोलने की इजाजद दी जाएगी। प्रस्तावित विल यदि कानूून में तबदील होता है तो यह कल्पना करना भी बेमानी है कि लन्दन के आक्सफोर्ड और भारत में खोले गए आक्सफोर्ड की षिक्षा एक जैसी होगी।
विदेशी शिक्षा संस्थान पिछले अनेक वर्षो से भारत में डेरा डालने के सपने बुन रहे हैं ताकि अधिकाधिक धनोपार्जन किया जा सके। ‘न्यूयार्क यूनिवर्सिटी पोली’ के प्रेसीडेन्ट जेरी हल्टिन ने कहा है कि अबूधवी में हमारे विश्वविद्यालय की संरचना सर्वोच्च है। उनकी नजर अब भारत पर है।इस विश्वविद्यालय के साथ अमेरिका के 800 कालेज संबद्ध हैं। जेरी का कहना है कि उन्हें भारत में अपार संभावनायें हैं। जाहिर है ‘अपार संभावनाओं’ से जेरी हल्टिन का तात्पर्य शिक्षा के व्यवसाय से है न कि ज्ञान रूपी किरणों से देश को अलोकित करने से।
‘विदेशी विश्वाविद्यालय बिल’ को संसद के पटल पर रखने से पूर्व हमारी कोशिश मौजूदा विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को चुस्त-दुरूस्त करने की होनी चाहिये। शिक्षा व्यापारियों के मुनाफे पर अंकुश लगा कर, विश्वविद्यलयों को राजनीति के शिकंजे से मुक्त कर अकादमिक हस्तियों की पहचान कर तथा शिक्षा की नियामक संस्थाओं में आसन जमाए दलालों को बेदखल कर ही उच्च शिक्षा के स्तर को गुणवत्तापूर्ण बनाया जा सकता है। अन्यथा विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश में शिक्षा की मँहगी दुकानें ही साबित होंगी।
उच्च शिक्षा का विस्तार स्तर की कीमत पर
अशोक बंसल
उच्च शिक्षा के कल्याण के लिये मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा देखे जा रहे सपनों का देश में उच्च पदस्थ बुद्धिजीवी स्वागत कर रहे हैं। ‘विदेशी विश्वविद्यालय बिल’ को मंत्रिमंडल की मंजूरी मिलने के बाद माना जा रहा है कि इस लुभावने बिल को संसद में कम्यूनिस्टों के विरोध के बाबजूद मंजूरी मिल जाएगी। देश में विदेशी शिक्षा संस्थानों को न्यौत कर उच्च शिक्षा को अन्तरराट्रीय स्तर का बना देने का विचार चार वर्ष पुराना हैं लेकिन तब कम्यूनिस्टों के प्रबल विरोध के बाद बात आगे नहीं बढ़ सकी थी। गत वर्ष बिल के पुराने स्वरूप में कुछ जोड़-बाकी कर इसे नए सिरे से तैेेेयार किया गया था ा सत्ता के शीर्श पर बैठे लोग शिक्षा क्षेत्र के विदेशी मेहमानों के स्वागत के लिए पलक पाँवडे बिछाने को तैयार हैं।
विदेशी विश्वविद्यालय बिल के लाभ गिनाते कपिल सिब्बल का कहना है कि अब बढ़िया शिक्षा के लिए स्वदेशी छात्रों (एक वर्ष में करीब एक लाख साठ हजार छात्र विदेश जाते हैं) को यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया नहीं जाना पड़ेगा। इससे विदेशी मुद्रा बचेगी। देश में सरकारी और निजी क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इससे शिक्षा का स्तर भी बेहतर होगा यह बिल संचार क्षेत्र में आई क्रान्ति से बड़ी क्रांति साबित होगा। बिल के प्रशंसकों का कहना है कि वर्तमान में 18-24 वर्ष के नौजवानों का सिर्फ 9 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा केी ओर अग्रसर हो पाता है। विदेशी विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद बढ़ती जनसंख्या को उच्चशिक्षा के रास्ते सुलभ होंगे, शिक्षकों को रोजगार मिलेगा, अन्य देशों के छात्र हमारे यहाँ पढ़ेंगे। इससे विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ेगा। यानि बिल एक और लाभ अनेक।
सच्चाई यह है कि बढ़ती जनसंख्या को देख विभिन्न क्षेत्र के व्यापारियों ने तकनीकी और प्रबन्धन कालेज दुतगति से खोले हैं। विगत एक दशक में अकेले उत्तर प्रदेश में 500 से ज्यादा तकनीकी और प्रबन्धन कालेज खुले हैं।
होटलनुमा इमारतों में चल रहे इन संस्थानों की शिक्षा के शोचनीय स्तर पर विद्वानों की दो राय नहीं हैं। इन संस्थानों से डिग्री प्राप्त कर निकले हजारों इंजीनियर और एम.बी.ए बेरोजगारों की कतार में जा बैठे हैं।
उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की लालसा वाले मंत्री कपिल सिब्बल ने अपने बिल में विदेशी विश्वविद्यालयों पर इस आश्य से अंकुश लगाने के इन्तजाम किए हैं ताकि शिक्षा के स्तर में गिरावट न आए। ऐसे अनेक अंकुष मौजूदा षिक्षा के स्तर को गिरने से रोकने के लिए पहले से बने हैं लेकिन आई आई टी और आई आई एम संस्थानों को छोड़कर अधिकांष षिक्षा संस्थान बिना महाबत के हाथी जैसे अपने मद में मस्त हैं ा
यह कहना गलत न होगा कि बीस वर्षो में उच्च शिक्षा का अच्छा खासा विस्तार हुआ है।स्वतन्त्रता के समय भारत में मात्र 20 विश्वविद्यालय और 500 महाविद्यालय थे। आज तकनीकी व प्रबधन संस्थानों की संख्या हजारों में है। इन संस्थानों को संचालित करने और इनके स्तर को बरकरार रखने के लिए सरकार के पास 13 नियामक संस्थाऐं हैं। क्या ये संस्थायें अपना दायित्व भलीभाँति निभा पा रही हैं? असीमित अधिकार वाली ये संस्थायें भ्रष्टाचार की चपेट में हैं। यू0 जी0 सी0 और अखिल भारतीय तकनीकी संस्थान, जैसी संस्थायें शिक्षा के स्तर पर लगाम न लगा शिक्षा व्यापारियों से मधुर रिश्ते कायम करने में तल्लीन हैं। यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा गठित ज्ञान आयोग ने उच्च शिक्षा क्षेत्र के नियमन के लिए एक स्वतन्त्र नियामक आयोग की स्थापना का सुझाव दिया है। शिक्षा को सही रास्ते पर लाने में नाकामयाब रही ये नियामक संस्थाऐं अपने देश की विदेशी शिक्षा पर कैसे लगाम कस सकेंगी, यह प्रश्न भी गौरतलब है। विश्वविद्यालयों में कुलपति जैसे गरिमामय और अकादमिक उत्कृष्टता वाले पद पर राजनेताओं के हस्तक्षेप ने शिक्षा के स्तर को चौपट किया है। विश्वविद्यालय और महाविद्यालय ज्ञान के केंद्र न होकर राजनीति के आखाड़ों में तबदील हो गये हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि सरकार के पास सब कुछ होते हुए भी उच्च शिक्षा के इन पुराने संस्थानों में सुधार क्यों नहीं हो पा रहा। ऐसे में विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश में कुछ चमत्कार करेंगे, यह सोचना बेमानी होगा।
कपिल सिब्बल ने कहा है विदेश के अन्तरराष्ट्रीय स्तर के शैक्षणिक संस्थान को ही यहाँ विश्वविद्यालय खोलने की इजाजद दी जाएगी। प्रस्तावित विल यदि कानूून में तबदील होता है तो यह कल्पना करना भी बेमानी है कि लन्दन के आक्सफोर्ड और भारत में खोले गए आक्सफोर्ड की षिक्षा एक जैसी होगी।
विदेशी शिक्षा संस्थान पिछले अनेक वर्षो से भारत में डेरा डालने के सपने बुन रहे हैं ताकि अधिकाधिक धनोपार्जन किया जा सके। ‘न्यूयार्क यूनिवर्सिटी पोली’ के प्रेसीडेन्ट जेरी हल्टिन ने कहा है कि अबूधवी में हमारे विश्वविद्यालय की संरचना सर्वोच्च है। उनकी नजर अब भारत पर है।इस विश्वविद्यालय के साथ अमेरिका के 800 कालेज संबद्ध हैं। जेरी का कहना है कि उन्हें भारत में अपार संभावनायें हैं। जाहिर है ‘अपार संभावनाओं’ से जेरी हल्टिन का तात्पर्य शिक्षा के व्यवसाय से है न कि ज्ञान रूपी किरणों से देश को अलोकित करने से।
‘विदेशी विश्वाविद्यालय बिल’ को संसद के पटल पर रखने से पूर्व हमारी कोशिश मौजूदा विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को चुस्त-दुरूस्त करने की होनी चाहिये। शिक्षा व्यापारियों के मुनाफे पर अंकुश लगा कर, विश्वविद्यलयों को राजनीति के शिकंजे से मुक्त कर अकादमिक हस्तियों की पहचान कर तथा शिक्षा की नियामक संस्थाओं में आसन जमाए दलालों को बेदखल कर ही उच्च शिक्षा के स्तर को गुणवत्तापूर्ण बनाया जा सकता है। अन्यथा विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश में शिक्षा की मँहगी दुकानें ही साबित होंगी।
Monday, May 10, 2010
उपजाऊ जमीन के काँटे
अशोक बंसल
1840 में आस्टेªलिया की धरती ने सोना उलगना शुरू किया। हुकूमत करने वाले गोरे ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ की स्टाइल में जगह-जगह ‘खुल जा सिमसिम’ कहते घूम रहे थे। दुनिया भर में, आस्टेªलिया में सोना निकलने की खबरें पहुँची। अनेक देशों के मजदूर हाथों में कुदाल और फावड़े ले आस्टेªलिया जा पहुँचे। कई स्थानों पर मौजूद पहाड़ों को खोद खोदकर मजदूर सोना निकालते। गोरी सरकार इसे खरीदकर और फिर जहाज में लादकर लन्दन पहुँचा देती। यह क्रम 1900 तक चला।
‘गोल्ड रश’ नाम से मशहूर इस दौड़ में चीनियों ने जबर्दस्त बाजी मारी। सन् 1850 में मेलबर्न से सौ कि0मी0 दूर बेलारंट की पहाड़ी से सोना खोदकर निकालने वालों में चीनियों की संख्या बीस हजार थी। अपने काम में माहिर और मेहनती चीनियों से गोरे लोग दूरी बनाकर ही नहीं रखते थे बल्कि ब्रिटिश सैनिकों की मदद से वे चीनियों के टेण्टों में घुसकर लूटपाट और मारपीट भी करते थे। चीनी डरे नहीं, डटे रहे।
आस्टेªलिया में आज चीनी लोगों का अपना एक अलग संसार है। आर्थिक जगत में चमकते चीनी हर पर्यटक को चहकते-दमकते दिखाई देते हैं। राजनीति में भी वे बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। 150 वर्ष पूर्व गोरों द्वारा चीनी समुदाय पर किए गए हमले अब इतिहास की विषयवस्तु है।
दो वर्ष पूर्व मैं मेलवर्न की सड़कों पर चौकड़ी भरते हुए आस्ट्रेलिया के इतिहास को जानने के लिए संग्रहालय दर संग्रहालय भटकता रहता था। यहीं मैंने जाना कि इस अद्भुत धरती के मूल निवासियों (एब्रोजनीज) को अंग्रेजो ने चुन-चुन कर कैसे मारा और उनकी लाखों की संख्या हजारो में कर दी।
आज मेलबर्न की इन्ही सड़कों पर भारतीयों पर होने वाले हमले, लूटपाट और हत्या ने मुझे जबर्दस्त धक्का पहुँचाया है। आस्टेªलिया की सरकार ने संग्राहलयों में गोरों द्वारा मूल निवासियों पर किए गए भीषण अत्याचारों को बड़ी ईमानदारी से दर्शाया है। इस ईमानदारी को देख मैं आस्ट्रेलिया की सरकार के प्रति श्रद्धानत था लेकिन आज भारतीय छात्रों पर होने वाले गोरे नौजवानों के नस्ली हमलों को ‘लूटपाट की साधारण घटना’ कहकर मामले की गंभीरता को कम करके आंकना आस्टेªलियाई मंत्रियों के लिए कितना उचित है?
63 साल की आजादी में हमारे देश के राजनैतिक कुप्रबन्धन ने नौजवानों को भटकाव के रास्ते पर ला पटका है। सिर्फ 20 फीसदी लोगों के लिए ‘देश सोने की चिड़िया’ है, बाकी के लिए जीने के लिए जुगाड़ करना ही जीवन है। ऐसे में नौजवानों में पलायन की प्रवृत्ति बढ़ी है।
अन्य देशों के मुकाबले आस्ट्रेलिया बसने के लिए उपयुक्त जगह है। खान-पान, रहन-सहन, वेतन आदि सब कुछ बढ़िया। 27 लाख आबादी वाले अकेले मेलबर्न में 70 हजार भारतीय हैं। आस्ट्रेलियाई सरकार को मानव संसाधन की बहुत जरूरत है। अतः मेलबर्न की आबादी 2030 तक 50 लाख करने का लक्ष्य रखा है। पर्थ, कैनबरा, एडिलेट, सिडनी, मेलबर्न कहीं भी बसो, स्थायी निवासी बनने पर जमीन खरीदों तो रियायत, बच्चे पैदा करने पर भी पुरूस्कार।
मैंने मेलबर्न में भारतीय लोगों को ‘बल्ले-बल्ले’ करते देखा। ‘क्या से क्या हो गए’ गाते देखा। कुल मिलाकर स्थायी वीजा लेकर आस्टेªलिया में बसने वाले भारतीय संपन्नता की मंजिल तय कर रहे हैं, साथ ही पराए देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं। अपनों से हजारों मील दूर रहकर आस्टेªलिया के विकास में सहयोग करने वाले भारतीयों पर होने वाले लगातार हमलों को आस्टेªलिया की सरकार फिर गंभीरता से क्यों नहीं ले रही, यह सवाल मेरे मानस को उद्वेलित करता है। एक भारतीय कर्टूनिस्ट ने अपने एक कार्टून में विक्टोरिया पुलिस को नस्लवादी संगठन ‘कू क्लाक्स क्लान’ का सदस्य दर्शाकर पुलिस के निकम्मेपन को रेखांकित करने की कोशिश की तो आस्ट्रेलिया की सरकार ने भारतीय मीड़िया को संयम बरतने का पाठ पढ़ा दिया। जब हम एक दूसरे के पूरक हैं तो सच को स्वीकार करने में देरी क्यो?
आस्टेªलिया के दो-दो माह के दो प्रवास में मैंने अनुभव किया है कि रोटी रोजी की जुगाड़ में गए भारतीयों के पैर आस्टेªेलिया की धरती पर अब अंगद के पैर बन चुके हैं। ऐसे में बेगुनाह छात्रों पर गोरों के हमलों से दहशत पैदा करने की कोशिश नाकाम सिद्ध होगी, बिलकुल वैसे जैसे 150 वर्ष पूर्व सोने की तलाश में आए चीनियों पर किए गए सुनियोजित हमलों के बाद चीनी भागे नहीं बल्कि ज्यादा मजबूत होकर वहीं बस गए।
प्रेषक: डॉ. अशोक बंसल 17, बल्देवपुरी एक्सटेंशन, मथुरा-281004, मो0 09837319969
लाल ताजमहल
यदि आपसे कहा जाए कि ताजनगरी आगरा में एक ताजमहल और है,यह दूधिया संगमरमर के बजाय लाल पत्थराूें से बना है तो आप चौंकेंगे अवश्य । आप ही नहीं आगरा के वाशिन्दे भी इसे ‘मूर्खतापूर्ण वक्तव्य’ कहने से नहीं चूकेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि आगरा में एक लाल ताजमहल भी है, पुरातत्व विभाग के कब्जे में होने के बावजूद एकदम अप्रचारित और उपेक्षित।
आगरा स्थित ‘भगवान टॉकीज’ के पास विशाल परकोटे में सिमटा कब्रिस्तान उत्तरी भारत का सबसे पुराना रोमन कैथेलिक कब्रिस्तान कहा जाता है। निश्चय ही, आगरा की अन्य इमारतों की तरह यह एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह बात अलग है कि पुरातत्व विभाग की उपेक्षा और अदूरदर्शिता के कारण लाखों की संख्या में आगरा आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों की नजर से एकदम अछूता है।
सैकड़ों छोटी-बड़ी, टूटी-फूटी, उजाड़ और कई भव्य और आकर्षक कब्रों की रखवाली के बूढा माली सिताब खॉ तैनात है। कब्रिस्तान के मुख्य द्वार पर बैठे सिताब खॉ का दिन बोरियत भरा बीतता है। इसका कारण है कि यहॉ आने वाले पर्यटकों की संख्या न के बराबर है। पुरातत्व विभाग के अफसर भी यहॉ यदा-कदा आते हैं, मानो इस कब्रिस्तान में भूतों का डेरा हो।
कब्रिस्तान के ठीक बीच में थित है लाल ताजमहल । शाहजहॉ के ताजमहल के मुकाबले भव्य तो नहीं पर लाल पत्थरों के इस ताजमहल को देखने पर कतई महसूस नहीं होता कि जिस प्रेमी ने इसेे प्रेमिका की याद में खड़ा किया है, उसका प्यार बादशाह शाहजहॉ और मुमताज के प्यार से किसी मायने में कम न था। चौकीदार सिताब खॉ को इस कब्रिस्तान में रहते-रहते कब्रों में दफन लोगों से लगाव पैदा हो गया था । वह यहॉ आने वाले पर्यटकों को कमरों के बीचों-बीच बनी खूबसूरत कब्र पर खुदी इबारत को पढ़ने का न्यौता अवश्य देता था ।
‘‘जॉन विलियम हैसिंग की मृत्यु 21 जुलाई 1803 को हुई। उन्होंने 60 साल 11 माह 5 दिन की जिन्दगी पाई। हैंसिग 1762 में भारत आए और दक्षिण निजाम सेवा में रहे। 1784 में तत्कालीन महाराज माधवराव सिंधिया की सेवा में रहे। कई युद्धों में हिस्सा लिया। 1787 में आगरा के पास भौंदा गॉंव में बहादुरी से लड़े और नबाब इस्माइल के विरुद्ध हुए युद्ध में बुरी तरह घायल हुए। 1793 में माधवराय सिंधिया की मृत्यु के बाद दौतराव की सेवा में रहे। 1798 में हैंसिग ने कर्नल का पद संभाला और अन्तिम श्वॉस तक आगरा किला और आगरा शहर की कमांड संभाले रखी।’’
काले चमकीले पत्थर पर इबारत खोदने वाले फिलिप हंट, कलकत्ता का नाम है। कहते हैं कि हैसिंग की पत्नी एलिस ने इस ताजमहल को एक लाख रुपया खर्च कर बनवाया था। सिताब खॉ कमरे में मौजूद नीरवता को तोड़ते कहते थे- ‘‘साहब ! यह तो नकली कब्र है, असली तो नीचे है।’’ सीढ़ियॉ उतरते हुए हम तहखानेनुमा कमरे में पहुॅचे। चारों ओर गन्दगी और अन्धकार का साम्राज्य था। बदबू और चमकादड़ की डरावनी आवाज के आगे असली कब्र के सामने ज्यादा ठहरने की हिम्मत नहीं हुईं। असली कब्र पर भी कुछ खुदा था लेकिन पुरातत्व विभाग की ‘मेहरबानी’ इतिहास के पन्नों को गहराई से पढ़ने की इजाजत नहीं देती।
अपने सिरों पर झड़ी गन्दगी को पोंछते हुए गहरे निःश्वास को छोड़ते हुए हम बाहर आए। लाल ताजमहल के पास खड़े दूसरी कब्रों के बीच दबे ढके इतिहास के पन्नों को पढ़ने की इच्छा हुई। साथी कैलाश वर्मा ने सिताब खॉ से पूछा- ‘इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र कौन सी है?’ सिताब खॉ चौकीदार था पुरातत्व विभाग का लेकिन हमारा तो गाइड था। हमारा ही नहीं, भूले-भटके आ टपकने वाले हर जिज्ञासु का।
17वीं-18वीं शताब्दी में यह कब्रिस्तान ईसाईयों का तीर्थ माना जाता था। उस जमाने में साधन-संपन्न अंग्रेज यदि दूरदराज इलाकों में प्राण छोड़ते थे, तो उनके रिश्तेदार और मित्र मृतक के शरीर को सैंकड़ो मील लाकर आगरा के इसी कब्रिस्तान में दफनाने में सुख और संतोष का अनुभव करते थे। तभी तो मिल्डन हॉल मरे अजमेर में और आराम फरमा रहे हैं आगरा के ऐतिहासिक कब्रिस्तान में।
मिल्डन हॉल की कब्र इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र मानी जाती है। कब्र पर लगे पत्थर पर खुदा है-‘जॉन मिल्डन हॉल लन्दन से चलकर 1599 में पर्शिया होते हुए हिन्दुस्तान आए। 1605 में लाहौर में बीमार पड़े और अजमेर में दम तोड़ा। वहॉ उनके दोस्त केरिज मर्चेन्ट ने उन्हें आगरा लाकर दफना दिया।’ कहते हैं मिल्डन हॉल एक यात्री की हैसियत से हिन्दुस्तान घुमा लेकिन अफसोस यह है कि उसकी रोमांचकारी यात्राओं का कोई विवरण उपलब्घ नहीं। मिल्डन हॉल ने बादशाह अकबर को अपना परिचय रानी एलिजाबेथ के प्रतिनिधि के रुप में दिया था।
लाल ताजमहल के र्दाइं तरफ पीछे की ओर पिरामिड की शक्ल में बनी कब्र इतिहास का एक और पृष्ठ खोलती है। यह जनरल पैरौ के चौथे बेटे, जिसकी मृत्यु 1793 में हुई, की कब्र है। जनरल पैरो महाराजा सिंधिया की फौज के महत्वपूर्ण कंमाडर थे। सिािताब खॉ ने बताया कि जनरल पैरो के वंशज दो साल पहले इंग्लैण्ड से यहॉ आए थे। कब्र पर जमीं काई को देखकर उन्होंने ऑसू बहाए थे। अपने पूर्वजों की निशानी को सही-सलामत बने रहने की इच्छा प्रकट की। इसके लिए अच्छी-खासी रकम भी दे गए थे, लेकिन कब्र पर जमीं मोटी परत किसी ने हटाई।
ताज का निर्माण 1631 से 1653 माना गया है। यानि कि इन बाईस वर्षों में अनेक कलाशिल्पियों और मजदूरों ने शाहजहॉ के सपनों को साकार किया था। इन्हीं शिल्पियों में एक था जरोमी बरोनियो। कहते हैं जरोमी की कब्र भी आगरा के इसी कब्रिस्तान में मौजूद है। सन् 1945 में आगरा के फादर सुपारियर रेगलर ने एक कब्र से कुछ काई हटाई तो एक पत्थर पर ‘जरोमी बरोनियो’ खुदा मिला।
लेखक ने अपने साथी डा0 मनोरंजन शर्मा के साथ कब्रों पर खुदी इबारत के बीच अमर शिल्पी का नाम खोजने की भरसक कोशिश की लेकिन न जाने कहॉ गुम हो गया जरोमी बरानियो। बात यह भी ठाक है कि ‘नींव के पत्थरों’ को गुमनामी के अॅंधेरे में विलीन होने में ही आनन्द आता है।
पुरातत्व विभाग का यह दायित्व है कि संगमरमरी ताजमहल के अमर शिल्पी जरोमी बरोनियो की कब्र की पहचान तय करे ताकि मनमोहक ताजमहल पर लट्टू होने वाले देशी-विदेशी पर्यटक जरोमी बरोनियो को भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर सकें।
आगरा स्थित ‘भगवान टॉकीज’ के पास विशाल परकोटे में सिमटा कब्रिस्तान उत्तरी भारत का सबसे पुराना रोमन कैथेलिक कब्रिस्तान कहा जाता है। निश्चय ही, आगरा की अन्य इमारतों की तरह यह एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह बात अलग है कि पुरातत्व विभाग की उपेक्षा और अदूरदर्शिता के कारण लाखों की संख्या में आगरा आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों की नजर से एकदम अछूता है।
सैकड़ों छोटी-बड़ी, टूटी-फूटी, उजाड़ और कई भव्य और आकर्षक कब्रों की रखवाली के बूढा माली सिताब खॉ तैनात है। कब्रिस्तान के मुख्य द्वार पर बैठे सिताब खॉ का दिन बोरियत भरा बीतता है। इसका कारण है कि यहॉ आने वाले पर्यटकों की संख्या न के बराबर है। पुरातत्व विभाग के अफसर भी यहॉ यदा-कदा आते हैं, मानो इस कब्रिस्तान में भूतों का डेरा हो।
कब्रिस्तान के ठीक बीच में थित है लाल ताजमहल । शाहजहॉ के ताजमहल के मुकाबले भव्य तो नहीं पर लाल पत्थरों के इस ताजमहल को देखने पर कतई महसूस नहीं होता कि जिस प्रेमी ने इसेे प्रेमिका की याद में खड़ा किया है, उसका प्यार बादशाह शाहजहॉ और मुमताज के प्यार से किसी मायने में कम न था। चौकीदार सिताब खॉ को इस कब्रिस्तान में रहते-रहते कब्रों में दफन लोगों से लगाव पैदा हो गया था । वह यहॉ आने वाले पर्यटकों को कमरों के बीचों-बीच बनी खूबसूरत कब्र पर खुदी इबारत को पढ़ने का न्यौता अवश्य देता था ।
‘‘जॉन विलियम हैसिंग की मृत्यु 21 जुलाई 1803 को हुई। उन्होंने 60 साल 11 माह 5 दिन की जिन्दगी पाई। हैंसिग 1762 में भारत आए और दक्षिण निजाम सेवा में रहे। 1784 में तत्कालीन महाराज माधवराव सिंधिया की सेवा में रहे। कई युद्धों में हिस्सा लिया। 1787 में आगरा के पास भौंदा गॉंव में बहादुरी से लड़े और नबाब इस्माइल के विरुद्ध हुए युद्ध में बुरी तरह घायल हुए। 1793 में माधवराय सिंधिया की मृत्यु के बाद दौतराव की सेवा में रहे। 1798 में हैंसिग ने कर्नल का पद संभाला और अन्तिम श्वॉस तक आगरा किला और आगरा शहर की कमांड संभाले रखी।’’
काले चमकीले पत्थर पर इबारत खोदने वाले फिलिप हंट, कलकत्ता का नाम है। कहते हैं कि हैसिंग की पत्नी एलिस ने इस ताजमहल को एक लाख रुपया खर्च कर बनवाया था। सिताब खॉ कमरे में मौजूद नीरवता को तोड़ते कहते थे- ‘‘साहब ! यह तो नकली कब्र है, असली तो नीचे है।’’ सीढ़ियॉ उतरते हुए हम तहखानेनुमा कमरे में पहुॅचे। चारों ओर गन्दगी और अन्धकार का साम्राज्य था। बदबू और चमकादड़ की डरावनी आवाज के आगे असली कब्र के सामने ज्यादा ठहरने की हिम्मत नहीं हुईं। असली कब्र पर भी कुछ खुदा था लेकिन पुरातत्व विभाग की ‘मेहरबानी’ इतिहास के पन्नों को गहराई से पढ़ने की इजाजत नहीं देती।
अपने सिरों पर झड़ी गन्दगी को पोंछते हुए गहरे निःश्वास को छोड़ते हुए हम बाहर आए। लाल ताजमहल के पास खड़े दूसरी कब्रों के बीच दबे ढके इतिहास के पन्नों को पढ़ने की इच्छा हुई। साथी कैलाश वर्मा ने सिताब खॉ से पूछा- ‘इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र कौन सी है?’ सिताब खॉ चौकीदार था पुरातत्व विभाग का लेकिन हमारा तो गाइड था। हमारा ही नहीं, भूले-भटके आ टपकने वाले हर जिज्ञासु का।
17वीं-18वीं शताब्दी में यह कब्रिस्तान ईसाईयों का तीर्थ माना जाता था। उस जमाने में साधन-संपन्न अंग्रेज यदि दूरदराज इलाकों में प्राण छोड़ते थे, तो उनके रिश्तेदार और मित्र मृतक के शरीर को सैंकड़ो मील लाकर आगरा के इसी कब्रिस्तान में दफनाने में सुख और संतोष का अनुभव करते थे। तभी तो मिल्डन हॉल मरे अजमेर में और आराम फरमा रहे हैं आगरा के ऐतिहासिक कब्रिस्तान में।
मिल्डन हॉल की कब्र इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र मानी जाती है। कब्र पर लगे पत्थर पर खुदा है-‘जॉन मिल्डन हॉल लन्दन से चलकर 1599 में पर्शिया होते हुए हिन्दुस्तान आए। 1605 में लाहौर में बीमार पड़े और अजमेर में दम तोड़ा। वहॉ उनके दोस्त केरिज मर्चेन्ट ने उन्हें आगरा लाकर दफना दिया।’ कहते हैं मिल्डन हॉल एक यात्री की हैसियत से हिन्दुस्तान घुमा लेकिन अफसोस यह है कि उसकी रोमांचकारी यात्राओं का कोई विवरण उपलब्घ नहीं। मिल्डन हॉल ने बादशाह अकबर को अपना परिचय रानी एलिजाबेथ के प्रतिनिधि के रुप में दिया था।
लाल ताजमहल के र्दाइं तरफ पीछे की ओर पिरामिड की शक्ल में बनी कब्र इतिहास का एक और पृष्ठ खोलती है। यह जनरल पैरौ के चौथे बेटे, जिसकी मृत्यु 1793 में हुई, की कब्र है। जनरल पैरो महाराजा सिंधिया की फौज के महत्वपूर्ण कंमाडर थे। सिािताब खॉ ने बताया कि जनरल पैरो के वंशज दो साल पहले इंग्लैण्ड से यहॉ आए थे। कब्र पर जमीं काई को देखकर उन्होंने ऑसू बहाए थे। अपने पूर्वजों की निशानी को सही-सलामत बने रहने की इच्छा प्रकट की। इसके लिए अच्छी-खासी रकम भी दे गए थे, लेकिन कब्र पर जमीं मोटी परत किसी ने हटाई।
ताज का निर्माण 1631 से 1653 माना गया है। यानि कि इन बाईस वर्षों में अनेक कलाशिल्पियों और मजदूरों ने शाहजहॉ के सपनों को साकार किया था। इन्हीं शिल्पियों में एक था जरोमी बरोनियो। कहते हैं जरोमी की कब्र भी आगरा के इसी कब्रिस्तान में मौजूद है। सन् 1945 में आगरा के फादर सुपारियर रेगलर ने एक कब्र से कुछ काई हटाई तो एक पत्थर पर ‘जरोमी बरोनियो’ खुदा मिला।
लेखक ने अपने साथी डा0 मनोरंजन शर्मा के साथ कब्रों पर खुदी इबारत के बीच अमर शिल्पी का नाम खोजने की भरसक कोशिश की लेकिन न जाने कहॉ गुम हो गया जरोमी बरानियो। बात यह भी ठाक है कि ‘नींव के पत्थरों’ को गुमनामी के अॅंधेरे में विलीन होने में ही आनन्द आता है।
पुरातत्व विभाग का यह दायित्व है कि संगमरमरी ताजमहल के अमर शिल्पी जरोमी बरोनियो की कब्र की पहचान तय करे ताकि मनमोहक ताजमहल पर लट्टू होने वाले देशी-विदेशी पर्यटक जरोमी बरोनियो को भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर सकें।
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