Monday, May 10, 2010

लाल ताजमहल

यदि आपसे कहा जाए कि ताजनगरी आगरा में एक ताजमहल और है,यह दूधिया संगमरमर के बजाय लाल पत्थराूें से बना है तो आप चौंकेंगे अवश्य । आप ही नहीं आगरा के वाशिन्दे भी इसे ‘मूर्खतापूर्ण वक्तव्य’ कहने से नहीं चूकेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि आगरा में एक लाल ताजमहल भी है, पुरातत्व विभाग के कब्जे में होने के बावजूद एकदम अप्रचारित और उपेक्षित।



आगरा स्थित ‘भगवान टॉकीज’ के पास विशाल परकोटे में सिमटा कब्रिस्तान उत्तरी भारत का सबसे पुराना रोमन कैथेलिक कब्रिस्तान कहा जाता है। निश्चय ही, आगरा की अन्य इमारतों की तरह यह एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह बात अलग है कि पुरातत्व विभाग की उपेक्षा और अदूरदर्शिता के कारण लाखों की संख्या में आगरा आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों की नजर से एकदम अछूता है।

सैकड़ों छोटी-बड़ी, टूटी-फूटी, उजाड़ और कई भव्य और आकर्षक कब्रों की रखवाली के बूढा माली सिताब खॉ तैनात है। कब्रिस्तान के मुख्य द्वार पर बैठे सिताब खॉ का दिन बोरियत भरा बीतता है। इसका कारण है कि यहॉ आने वाले पर्यटकों की संख्या न के बराबर है। पुरातत्व विभाग के अफसर भी यहॉ यदा-कदा आते हैं, मानो इस कब्रिस्तान में भूतों का डेरा हो।

कब्रिस्तान के ठीक बीच में थित है लाल ताजमहल । शाहजहॉ के ताजमहल के मुकाबले भव्य तो नहीं पर लाल पत्थरों के इस ताजमहल को देखने पर कतई महसूस नहीं होता कि जिस प्रेमी ने इसेे प्रेमिका की याद में खड़ा किया है, उसका प्यार बादशाह शाहजहॉ और मुमताज के प्यार से किसी मायने में कम न था। चौकीदार सिताब खॉ को इस कब्रिस्तान में रहते-रहते कब्रों में दफन लोगों से लगाव पैदा हो गया था । वह यहॉ आने वाले पर्यटकों को कमरों के बीचों-बीच बनी खूबसूरत कब्र पर खुदी इबारत को पढ़ने का न्यौता अवश्य देता था ।

‘‘जॉन विलियम हैसिंग की मृत्यु 21 जुलाई 1803 को हुई। उन्होंने 60 साल 11 माह 5 दिन की जिन्दगी पाई। हैंसिग 1762 में भारत आए और दक्षिण निजाम सेवा में रहे। 1784 में तत्कालीन महाराज माधवराव सिंधिया की सेवा में रहे। कई युद्धों में हिस्सा लिया। 1787 में आगरा के पास भौंदा गॉंव में बहादुरी से लड़े और नबाब इस्माइल के विरुद्ध हुए युद्ध में बुरी तरह घायल हुए। 1793 में माधवराय सिंधिया की मृत्यु के बाद दौतराव की सेवा में रहे। 1798 में हैंसिग ने कर्नल का पद संभाला और अन्तिम श्वॉस तक आगरा किला और आगरा शहर की कमांड संभाले रखी।’’

काले चमकीले पत्थर पर इबारत खोदने वाले फिलिप हंट, कलकत्ता का नाम है। कहते हैं कि हैसिंग की पत्नी एलिस ने इस ताजमहल को एक लाख रुपया खर्च कर बनवाया था। सिताब खॉ कमरे में मौजूद नीरवता को तोड़ते कहते थे- ‘‘साहब ! यह तो नकली कब्र है, असली तो नीचे है।’’ सीढ़ियॉ उतरते हुए हम तहखानेनुमा कमरे में पहुॅचे। चारों ओर गन्दगी और अन्धकार का साम्राज्य था। बदबू और चमकादड़ की डरावनी आवाज के आगे असली कब्र के सामने ज्यादा ठहरने की हिम्मत नहीं हुईं। असली कब्र पर भी कुछ खुदा था लेकिन पुरातत्व विभाग की ‘मेहरबानी’ इतिहास के पन्नों को गहराई से पढ़ने की इजाजत नहीं देती।

अपने सिरों पर झड़ी गन्दगी को पोंछते हुए गहरे निःश्वास को छोड़ते हुए हम बाहर आए। लाल ताजमहल के पास खड़े दूसरी कब्रों के बीच दबे ढके इतिहास के पन्नों को पढ़ने की इच्छा हुई। साथी कैलाश वर्मा ने सिताब खॉ से पूछा- ‘इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र कौन सी है?’ सिताब खॉ चौकीदार था पुरातत्व विभाग का लेकिन हमारा तो गाइड था। हमारा ही नहीं, भूले-भटके आ टपकने वाले हर जिज्ञासु का।

17वीं-18वीं शताब्दी में यह कब्रिस्तान ईसाईयों का तीर्थ माना जाता था। उस जमाने में साधन-संपन्न अंग्रेज यदि दूरदराज इलाकों में प्राण छोड़ते थे, तो उनके रिश्तेदार और मित्र मृतक के शरीर को सैंकड़ो मील लाकर आगरा के इसी कब्रिस्तान में दफनाने में सुख और संतोष का अनुभव करते थे। तभी तो मिल्डन हॉल मरे अजमेर में और आराम फरमा रहे हैं आगरा के ऐतिहासिक कब्रिस्तान में।

मिल्डन हॉल की कब्र इस कब्रिस्तान की सबसे पुरानी कब्र मानी जाती है। कब्र पर लगे पत्थर पर खुदा है-‘जॉन मिल्डन हॉल लन्दन से चलकर 1599 में पर्शिया होते हुए हिन्दुस्तान आए। 1605 में लाहौर में बीमार पड़े और अजमेर में दम तोड़ा। वहॉ उनके दोस्त केरिज मर्चेन्ट ने उन्हें आगरा लाकर दफना दिया।’ कहते हैं मिल्डन हॉल एक यात्री की हैसियत से हिन्दुस्तान घुमा लेकिन अफसोस यह है कि उसकी रोमांचकारी यात्राओं का कोई विवरण उपलब्घ नहीं। मिल्डन हॉल ने बादशाह अकबर को अपना परिचय रानी एलिजाबेथ के प्रतिनिधि के रुप में दिया था।

लाल ताजमहल के र्दाइं तरफ पीछे की ओर पिरामिड की शक्ल में बनी कब्र इतिहास का एक और पृष्ठ खोलती है। यह जनरल पैरौ के चौथे बेटे, जिसकी मृत्यु 1793 में हुई, की कब्र है। जनरल पैरो महाराजा सिंधिया की फौज के महत्वपूर्ण कंमाडर थे। सिािताब खॉ ने बताया कि जनरल पैरो के वंशज दो साल पहले इंग्लैण्ड से यहॉ आए थे। कब्र पर जमीं काई को देखकर उन्होंने ऑसू बहाए थे। अपने पूर्वजों की निशानी को सही-सलामत बने रहने की इच्छा प्रकट की। इसके लिए अच्छी-खासी रकम भी दे गए थे, लेकिन कब्र पर जमीं मोटी परत किसी ने हटाई।

ताज का निर्माण 1631 से 1653 माना गया है। यानि कि इन बाईस वर्षों में अनेक कलाशिल्पियों और मजदूरों ने शाहजहॉ के सपनों को साकार किया था। इन्हीं शिल्पियों में एक था जरोमी बरोनियो। कहते हैं जरोमी की कब्र भी आगरा के इसी कब्रिस्तान में मौजूद है। सन् 1945 में आगरा के फादर सुपारियर रेगलर ने एक कब्र से कुछ काई हटाई तो एक पत्थर पर ‘जरोमी बरोनियो’ खुदा मिला।

लेखक ने अपने साथी डा0 मनोरंजन शर्मा के साथ कब्रों पर खुदी इबारत के बीच अमर शिल्पी का नाम खोजने की भरसक कोशिश की लेकिन न जाने कहॉ गुम हो गया जरोमी बरानियो। बात यह भी ठाक है कि ‘नींव के पत्थरों’ को गुमनामी के अॅंधेरे में विलीन होने में ही आनन्द आता है।

पुरातत्व विभाग का यह दायित्व है कि संगमरमरी ताजमहल के अमर शिल्पी जरोमी बरोनियो की कब्र की पहचान तय करे ताकि मनमोहक ताजमहल पर लट्टू होने वाले देशी-विदेशी पर्यटक जरोमी बरोनियो को भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर सकें।



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