वृन्दावन का प्रेम महाविद्यालय वर्बादी के कगाार पर
अशोक बंसल
मथुरा से 11 कि.मी. दूर वृन्दावन में यमुना किनारे स्थित ‘प्रेम महाविद्यालय’ आज पूरी तरह तहस-नहस है। एक शताब्दी पुराना यह विद्यालय इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। गुलामी के वक्त बिट्रिश हुकूमत के वायसराय लार्ड रीडिंग तक की आँखों की किरकिरी बना ‘प्रेम महाविद्यालय’ की प्रत्येक ईंट आजादी के दीवानों के त्याग तपस्या की मूक गवाह है। साथ ही, यह महाविद्यालय वर्तमान में जिला विद्यालय निरीक्षक तथा चन्द शिक्षकों की अर्थलिप्सा और भ्रष्ट आचारण पर आँसू भी बहा रहा है। विद्यालय में वास्तव में एक भी छात्र दिखाई न देने के बावजूद यहाँ तैनात शिक्षकों को वेतन मिल रहा है।
एक मायने में किसी गौरवशाली संग्रहालय की साख वाले इस विद्यालय की स्थापना २४ मई १९0९ में क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने की थी। मदन मोहन मालवीय ने इस विद्यालय की पहली ईंट रखी। लाखों रूपये की सम्पत्ति को विद्यालय के नाम करने वाले अद्भुत राजा महेन्द्र प्रताप का सोच था कि उनका ‘प्रेम महाविद्यालय’ छात्रों को स्वदेश और समाजसेवा का पाठ पढ़ायेगा। आजादी मिलने तक राजा के सपने सच हुए लेकिन आजादी के बाद प्रतापी राजा को निराशा हाथ लगी।
वृन्दावन के प्रेम महाविद्यालय की कीर्ति सम्पूर्ण देश में फैली। नतीजतन, महामना मदन मोहन मालवीय का पेूम इस विद्यालय से लम्बे समय तक रहा। महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, लाला हंसराज, सुभाष चन्द्र बोस, सी.एफ. एण्डूज, रवीन्द्रनाथ टेगौर, सरोजनी नायडू सरीखे जाने-माने नाम प्रेम महाविद्यालय को देखने वृन्दावन आये और विद्यालय की हस्ताक्षर पंजिका में अपनी-अपनी प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ दर्ज की। १४ अप्रैल १९१५ को महात्मा गाँधी ने अपना पूरा दिन इस विद्यालय में बिताया। इस विद्यालय की लोकप्रियता के किस्सों की फहरिस्त लम्बी है।
हाथरस जिले की मुरसान रियासत के राजा महेन्द्र प्रताप के हृदय में स्वाधीनता का विचार हिलोरें ले रहा था। विद्यालय का काम काज अपने साथियों को सौंप राजा साहब 20 दिसम्बर १९१४ को विदेश चले गये। ३२ वर्ष बाद वे १९४६ में वापस आये। इस दौरान प्रेम महाविद्यालय काँग्रेसियों और क्रान्तिकारियों की शरणस्थली बना। १९२१ के इस विद्यालय के छात्र-शिक्षकों ने कंधे से कंधा मिलाकर हिस्सा लिया। १९२९ में कुछ माह के अन्तराल से गाँधी और नेहरू के वृन्दावन के इस विद्यालय में आने की तारीखें दर्ज हैं। १९२१ में राजा विदेश में रूस, जापान, जर्मनी की विशिष्ठ हस्तियों से मेलजोल बढ़ा देश को स्वाधीन बनाने की योजनाओं में लिप्त थे। रूस में लेनिन ने राजा महेन्द्र प्रताप को मुलाकात का निमन्त्रण दिया ा इधर भारत में वायसराय लार्ड रीडिंग ने राजा और प्रेम महाविद्यालय की सम्पत्ति को जब्त करने की योजना बनायी, लेकिन डॉ. तेज बहादुर सप्रू जो लार्ड रीडिंग की कार्यकारी काँसिल के कानूनी सलाहकार थे, ने प्रेम महाविद्यालय की पैरवी की और इसे बन्द होने से बचाया। १९३२ में एक बार फिर मथुरा के कलेक्टर डब्लू.सी. डायविल ने प्रेम महाविद्यालय को निशाना बनाया। विद्यालय ६ वर्ष तक बन्द रहा लेकिन मथुरा-वृन्दावन में मौजूद राष्ट्रप्रेमियों ने इस विद्यालय को फिर से जीवन्त बनाया। १९३८ में आचार्य नरेन्द्र देव इस विद्यालय की प्रबन्ध समिति के सदस्य बने। नरेन्द्र देव ने शिक्षा को विस्तार देते हुए पॉलीटैक्निक महाविद्यालय की स्थापना की ा मथुरा-वृन्दावन रोड पर स्थित यह महाविद्यालय प्रारम्भ में प्रसिद्ध रहा लेकिन अब इसकी कीर्ति शनै-शनै धूमिल हो गयी है।
१९५७ में दूसरी लोकसभा में राजा महेन्द्र प्रताप मथुरा से सांसद बने। १९७८ में उनका निधन हुआ। तब तक प्रेम महाविद्यालय में पढ़ाई-लिखाई होती रही लेकिन राजा साहब के निधन के बाद विद्यालय को स्थानीय और बाहरी सभी भूल गये। पिछले दिनों वृन्दावन में कुछ इतिहास प्रेमियों ने ‘प्रेम महाविद्यालय पुर्नजन्म उत्सव’ मनाया। राजा साहब के कृतित्व-व्यक्तित्व का स्मरण किया गया लेकिन कागजों पर चलने वाले इस विद्यालय में प्राण फँूकने की कोई गम्भीर योजना न बन सकी।
मथुरा के पुरातत्व व इतिहास प्रेमी हुकुमचन्द्र तिवारी का कहना है कि शिक्षा माफियाओं के फलने-फूलने वाले इस युग में ‘प्रेम महाविद्यालय’ को चलाना नामुमाकिन है लेकिन इस विद्यालय को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर इसे एक आकर्षक संग्रहालय में तब्दील किया जा सकता है।
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Wednesday, May 12, 2010
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kai tasviir ke sath apka article. virndavan ke is dharohar ke aitihasika tathya ke ke liye bahut bahut dhanyavad.
ReplyDeletehttp://prema-prayojana.blogspot.com/2010/06/blog-post_10.html