Monday, May 24, 2010

स्वर्ग की सीढ़ियों पर नरक की


परछाइयां



धार्मिक भावनाओं की तुष्टि के सिलसिले में वृंदावन का नाम कुछ ज्यादा ही श्रद्धा से लिया जाता है । बंगाल में तो बहुत पहले से मान्यता रही है कि स्वर्ग के दरवाजे पर दस्तक वृंदावन में रहकर ही दी जा सकती है । वैधव्य की आपदाओं से घिरी बंगाली स्त्रियों को बाकी जीवन के लिए वृंदावन एक जैसे ताकत देता रहा है । यही कारण है कि वृंदावन में बंगाली विधवाओं की उपस्थिति एक शताब्दी से लगातार बनी हुई है । ये विधवाऐं यहॉं स्वर्ग की आस लिए आती हैं और इसी आस के सहारे सारा जीवन नारकीय यातनाओं को भोगते गुजार देती हैं । इन अनपढ़, सीधी-सच्ची और दुखी औरतौं को इस बात का तनिक आभास नहीं होता कि उनकी वर्तमान हालत पुराने जन्मों के पापों का फल न होकर सुनयोजित ढंग से धर्म के नाम पर खड़े किए गए आडबंर के कारण है । वृंदावन में बंगाली विधवाओं की स्थिति एक बार जाल में फंसने के बाद कभी न निकलने वाली मछली की मानिद है ।

घटती-बढ़ती तकरीबन तीन हजार की गिनती में हमेशा बने रहने वाली विधवाओं के दुख-दर्द की कहानी वृंदावन के एक आश्रम से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ी है । वृंदावन के पत्थरपुरा इलाके में इस आश्रम की स्थापना 1914 में जानकीदास पटोरिया नाम के सेठ ने की थी । ‘भगवान भजनाश्रम’ नाम के इस आश्रम की स्थापना बंगाली बाइयों को अनैतिक काम में पड़ने से रोकने और जीवन यापन की व्यवस्था करने जैसे पवित्र उद्देश्य को लेकर की गई थी । विधवाओं के नाम पर आने वाली दान की रकम कीे नाम मात्र की पूंजी से खड़े किए भजनाश्रम का अरबों का बना दिया है । वृंदावन के अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल आदि स्थानों पर भजनाश्रम की शाखाऐं जड़ जमा चुकी हैं ा चित्रकूट के पास नवद्वीप और बंबई में भी आश्रम की अथाह संपति है । दूसरी ओर भजन करने वाली बाइयों की हालत इतनी दयनीय है कि पत्थर भी पिघल जाए ।

आठ घंटे मजीरे पीट-पीट कर मुक्त कंठ से ‘हरे राम राम राम हरे हरे’ का उद्घोषण करने के बाद एक बाई को ढाई सौ ग्राम चावल और एक रुपए की आश्रम मुद्रा की मुद्रा मिलती है ।

इंसान का वर्तमान जितना कष्टप्रद और असुरक्षित हो, भविष्य की असुरक्षा का भय उसे उतना ही सताता है । सतरह साल की जवान बाई से लेकर अस्सी साल की लाठी के बल पर चलने वाली या सड़क पर घिसटने वाली विकलांग बाई तक सभी ढ़ाई सौ ग्राम चावल पेट में झोंक कर जिंदा रहतीं हैं और एक रुपया बचा लेती हैं । सेवा कुंज, मदन मोहन का घेरा और गोविंद जी के घेरे में बनी कभी भी गिरने वाली अंधेरी, सीलन भरी और बदबूदार कोठरियों में सात-सात, आठ-आठ की संख्या में ठुसी बाइयां अपनी अमूल्य निधि ‘एक रुपए’ को रखने का सुरक्षित स्थान नहीं ढूंढ़ पाती । वे आश्रम के बाबूओं के पास ब्याज के लालच में इस रकम को जमा कराती रहती हैं । बाइयों के आगे-पीछे कोई होता नहीं, सो बाई के मरने बाद उसका धन भी छूट जाता है । अनेक बाइयां वृंदावन पलायन करते समय साथ में लाई हुई पूंजी भी ब्याज पर उठा देती हैं । शाम के वक्त वृंदावन में मंदिरों के आगे इन्हीं बाइयों को भिक्षावृति करते देखा जा सकता है । इस भिक्षावृति के पीछे संचय की प्रवृति भी है ।

बाईयॉं सुबह 10 बजे जब भजनाश्रम से अपनी कोठरियों की ओर कूच करती है तो रास्ते में पड़े झूठे पत्ते उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते । अस्थिपंजर बने रुग्ण शरीर उन्हें चाटने लगते हैं । बाइयों को आश्रम के कर्मचारी भी प्रताड़ित करने से पीछे नहीं रहते । एक बार एक बुढ़िया बाई को आश्रम की सीढ़ियों से केवल इसलिए धकिया दिया गया कि वह भजन के लिए कुछ देर से आई थी । रक्तरंजित बाई मिन्नतों और गिड़गिड़ाने के बाद भी आश्रम में प्रवेश न पा सकी। उस दिन उसे बिना चावल के ही गुजारा करना पड़ा । अमानवीयता और अत्याचार की मिलीजुली संस्कृति ने आश्रम के प्रति बंधुआ मजदूरों का सा भय और आंतक इन निरपराध बाइयों के मन में भर दिया है । आश्रम के कर्मचारियों के घरों का काम, सफाई, झूठे बर्तन साफ करना आदि भी इन्हीं बाइयों से लिया जाता है । इसके लिए उसे अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता । ‘भजनाश्रम’ के पास अपना एक आयुर्वेद संस्थान भी है जिसमें करीब चालीस दवाएं बनती हैं । दवाओं के कूटने, शीशियों में भरने और पैकिंग करने आदि का काम इन्हीं बाइयों से लिया जाता है ।

समूचे देश के दानदाता भजनाश्रम की बाइयों के लिए हजारों रुपए के हिसाब से भेज रहे हैं । इसके अलावा सावन और फागुन के महीने में मारवाड़ी लोग वृंदावन आते हैं तो हजारों की रकम आश्रम को दान कर जाते हैं ा कंबल, रजाई आदि बांटने के लिए दे जाते हैं । बीस साल से वृंदावन में रह रही दो बाइयों ने बताया कि उन्हें आज तक कोई रजाई या कंबल नहीं दिया गया । वृंदावन में स्थित फोगला आश्रम भी भजनाश्रम की एक शाखा है । साल में चार महीने इस आश्रम में रोजाना चलने वाली रासलीला में हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं । आयोजक घड़े लेकर रासलीला के खत्म होने पर चढ़ावे के लिए जनता के बीच निकलते हैं । कहते हैं करीब तीस-चालीस हजार की रकम रोजाना इकट्ठी हो जाती है । फोगला आश्रम के अतिरिक्त भजनाश्रम की दो बड़ी-बड़ी इमारतें और भी हैं-- खेतावत भवन और वैश्य भवन । इन भवनों में बने आलीशान कमरे दानदाता सेठों के आने पर ही खुलते हैं लेकिन प्रचारित यह किया जाता है कि यह भवन बाइयों के लिए बनाए गए हैं ।

एक धर्मिक नगर में लोग बाइयों के हक में आवाज उठाने को तैयार नहीं है । महानगरों में नारी-शोषण के खिलाफ प्रदर्शन होना एक आम बात है । लेकिन वृंदावन की बाइयों के हक की आवाज उठाने की सुध् किसी को नहीं । वृंदावन की बाइयों की व्यथा पर कथा लिखने वालों की कमी नहीं रही। समय-समय पर देशी-विदेशी कैमरे इन बाइयों के चित्र उतारते रहते हैं । सामाजिक संगठन इनकी दुर्दशापर कभी-कभी चर्चा भी करते देखे गए हैं लेकिन स्वर्ग की आस में नरक जैसा जीवन जीने वाली बेसहारा औरतों को सहारा देने वाला कोई नहीं ।

2 comments:

  1. वृन्दावन के आश्रमों में रहने वाली बाईयों की व्यथा एक बार पिताजी ने सुनायी थी यकीन नहीं हुआ था, आज एक बार फ़िर पढकर मन खिन्न हो उठा है। ईश्वर भी क्या इस अन्याय के प्रति आंखे मूंदे बैठा है ?

    ReplyDelete